आपका -विपुल
अन्ना आंदोलन सफ़ल रहा या असफल?
ज्यादातर लोग कहेंगे असफल।
लेकिन मैं कहूंगा कि अन्ना आंदोलन जिस उद्देश्य से शुरू किया गया था,वो शत प्रतिशत सफ़ल रहा।
कैसे?
समझना चाहेंगे ?
अन्ना आंदोलन शुरू करने वाले लोग कौन कौन थे?
पहला नाम-सारे बड़े समाचार न्यूज़ चैनल्स के मालिक
दूसरे किरण बेदी,अरविन्द केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण,अग्निवेश जैसे बड़े और प्रतिष्ठित पॉश लोग जो चांदी का चमच मुंह में लेकर पैदा हुए थे, जिनके पास पैसा और थोड़ी बहुत पावर थी, मैग्सेसे जैसा पुरस्कार भी जिनके पास था।
भारत के सबसे बड़े व्यापारियों में से एक रामदेव को मैं पॉश लोगों में ही गिनता हूं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता भारत की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी केवल प्रधानमंत्री ऑफिस की कार को क्रेन से उठाने से उतना मशहूर थीं जितना ददुआ और वीरप्पन को ऊपर पहुंचाने वाले आईपीएस कभी भी न हुये।
किरण बेदी एक टेनिस खिलाड़ी भी रही थीं और तब टेनिस खिलाड़ी कभी किसी कमजोर परिवार से नहीं आ सकते थे, आप भी जानते हैं मंहगा खेल था टेनिस।पंजाबी सिख कम्युनिटी से वास्ता रखने वाली किरण बेदी तिहाड़ जेल में कैदियों की सुख सुविधायें बढ़वाने वाली एक आईपीएस भी थीं।और किरण बेदी ने तिहाड़ जेल में कैदियों को मिलने वाली सुविधाओं को मीडिया में दिखा कर मैग्सेसे पुरस्कार भी जीता था।आरोप उन पर ये भी लगे थे कि अपनी बेटी को एमबीबीएस में एडमिशन दिलवाने के लिये मिजोरम में कुछ घपला किया था, पर इसकी पुष्टि तो नहीं है।
खैर किरण बेदी पॉश मध्यवर्ग की एक स्टार थीं और ऐसे ही स्टार योगेंद्र यादव भी थे।
चुनाव विशेषज्ञ।
योगेंद्र यादव पिछ्ले एक दशक से चुनाव विश्लेषक के रूप में हर चैनल में दिखाई पड़ते थे। और ये कौन सी जुगाड़ से हर चैनल पर आते थे, ये सोचने समझने की कूवत मुझमें न तब थी, न अब है।
अन्ना आंदोलन में बहुत बड़ा रोल योगेंद्र यादव ने भी निभाया था। और भी एक पोस्टर बॉय थे अन्ना के।
प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट के वकील थे, जैसे उनके पिता जी शांति भूषण सीनियर वकील।
और सुप्रीम कोर्ट में सीनियर वकील होने का मतलब पद या अनुभव नहीं होता,सारे सीनियर वकील जुगाड़ से ही बनते हैं।वकालत से जुड़ा कोई ईमानदार आदमी बता सकता है।
इनको भी पैसे और पावर के बाद प्रसिद्धि की तलब थी।
संतोष हेगड़े जज थे और एडमिरल रामदास पूर्व सेनाधिकारी, वी के सिंह पूर्व सेनाध्यक्ष। ये सब कहीं न कहीं अन्ना आंदोलन से जुड़े जो इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के नाम से था।
लोकप्रिय होने की कोशिश कर रहे कवि कुमार विश्वास को भी अन्ना आंदोलन मंच से जुड़ने का लाभ दिखा।
बाबा रामदेव योग गुरू के रूप में सफ़ल होने के बाद अपना व्यापार बढ़ाने और एलीट वर्ग में शामिल होने के साथ ही सत्ता में भी कुछ दखल चाहते थे।अग्निवेश जैसे लोग हर उस जगह होते हैं जहां कुछ खिचड़ी पक रही हो।शाजिया इल्मी, आशुतोष, नाम काफी हैं पर एक नाम जो किरण बेदी के बाद सबसे महत्वपूर्ण रहा इस अन्ना आंदोलन में।
वो महत्वपूर्ण नाम अरविन्द केजरीवाल था।अरविन्द केजरीवाल को अन्ना आंदोलन के पहले शायद ही कोई जानता हो। अरविन्द केजरीवाल अन्ना हजारे के दाहिने हाथ जैसे दिखे।और किरण बेदी के बराबर महत्व रखते थे उन अन्ना के आंदोलन में जिन अन्ना को शायद ही आधे भारत में कोई जानता था इस आंदोलन के पहले।
अन्ना हजारे महाराष्ट्र में भले ही प्रसिद्ध हों , दिल्ली और उत्तर भारत में चंद चंदाजीवी बुद्धिजीवी वर्ग के अलावा शायद ही कोई जानता था और महत्व देता था।
अब उस समय अरब स्प्रिंग चल रहा था, सरकारें बदल रही थीं और भारत में ऐसी शक्तियों को कोई मुखड़ा चाहिए था जो थोड़ा विश्वसनीय लगे।
आप गौर करिये इस इण्डिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन की मांगे, जो लोगों को बहुत भा रही थीं कितनी ज्यादा बेतुकी थीं और सिविल सोसायटी नामका ढकोसला क्या था?
मतलब चुनी हुई सरकार का शीर्षस्थ नेता भी उस लोकायुक्त के आगे शीश नवाए जो इन बिना जिम्मेदारी के तथाकथित शहरी चालाक लोगों में से एक हो।
ये सिविल सोसायटी जिसमें मनीष सिसोदिया, केजरीवाल जैसे लोग थे, ये खुद को ईमानदार बता कर भारत की असली राज सत्ता को चुनौती दे रहे थे। ये अराजकतावाद था। बिलकुल बेतुका था, लेकिन इसको ऐसा रूमानियत भरा जामा पहना के पेश किया मीडिया ने कि पब्लिक वाह वाह कर उठी।
1998 में अटल सरकार ने सूचना संचार के क्षेत्र में एफडीआई की जो अनुमति दी थी, उसका नतीजा भारतीय जनता ने 2011 में भुगता। सुबह दोपहर शाम रात केवल अन्ना अन्ना ही चल रहा था सारे टीवी चैनलों पर पर। कौन चलवा रहा था, पता नहीं।पर अन्ना के अलावा कुछ और करीब महीने भर टीवी पर चला नहीं था।
ये पूरी तरह से एक मीडिया प्रायोजित आंदोलन था, दिल्ली नोएडा के अलावा शायद ही इसके बारे में कोई और जानता अगर ये चौबीसों घंटे सारे समाचार चैनलों पर न दिखाया जाता। सारे बड़े मीडिया खिलाड़ी इसमें पूरे तरह से संलग्न और संलिप्त थे।
किरण बेदी जैसे चालाक नौकरशाह,मीडियामैन योगेंद्र यादव, कानून के दलाल भूषण जैसे लोगों के साथ प्रसिद्धि के भूखे रामदेव और शातिर केजरीवाल का जुड़ना ही पर्याप्त नहीं था।
आरएसएस और भाजपा का भी इस आंदोलन में पूरा सहयोग था। जो भीड़ जुटाते थे।
निर्भया कांड और 2जी घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला वगैरा से जनता परेशान थी। कॉन्ग्रेस की छवि खराब थी । और शायद आपको ध्यान हो मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उभरने का भी यही टाइम था, यही तरीका था और यही पैटर्न था जो अन्ना आंदोलन और केजरीवाल का था।
हूबहू, वही मीडिया मैनेजमेंट भी।
मोदी और केजरीवाल की ब्रांडिंग बिलकुल एक जैसी थी और एक ही जैसी शक्तियां भी इनके पीछे थीं। रामदेव अन्ना आंदोलन से सबसे पहले अलग हुये थे। इन्होंने बाद में दिल्ली में अपना आंदोलन भी किया था, जिससे भागना पड़ा था।
किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल अन्ना आंदोलन के दो सबसे बड़े कर्ता धर्ता थे।
किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल दोनों पूर्व नौकरशाह थे और हद दर्जे के सत्ता लोभी भी।
अन्ना आंदोलन को तना पैसा कहां से मिला, इतना प्रचार क्यों मिला अभी भी एक रहस्य है।
आंदोलन स्थगित होने तक अरविन्द केजरीवाल लाइम लाइट में आ चुके थे।2013 में आम आदमी पार्टी बना कर दिल्ली चुनाव लड़े भी।
केजरीवाल और भाजपा को शायद बराबर सीटें मिली थीं । केजरीवाल ने कॉन्ग्रेस से हाथ मिलाया,मुख्यमंत्री बन गए।फिर कॉन्ग्रेस से पटी नहीं।
2014 में मोदी लहर में भाजपा जीती।केजरीवाल मोदी से लोकसभा चुनाव हारे।पर दिल्ली में दोबारा जीत गए।अन्ना को अकेले छोड़ा जा चुका था।
किरण बेदी दिल्ली भाजपा अध्यक्ष बनीं विधानसभा चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हुआ। किरण बेदी पुडुचेरी की उपराज्यपाल बन गईं।
योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण, कपिल मिश्रा, शाजिया इलमी, आशुतोष,रामदास, संतोष हेगड़े आदि ने या तो अन्ना और केजरीवाल का साथ छोड़ा या भगा दिया गया।
अन्ना कहां हैं, पता नहीं, कभी कभी खुद को प्रासंगिक दिखाने की कोशिश करते हैं पर टीआरपी नहीं मिलती।
अब हम मुद्दे की बात कर लें?
अन्ना आंदोलन हाई क्लास कुलीन तंत्र वाले लोगों का एक आंदोलन था जो अपने अपने क्षेत्रो में सफ़ल थे और सत्ता लोभी थे। उनका पेट केवल पैसों और पब्लिसिटी से नहीं भर रहा था, उन्हें पावर चाहिए थी।
इन लोगों को साथ भारत में अराजकता फैलाने वाली ताकतों से मिला।
इतना बड़ा आंदोलन जिसे मीडिया और सारे समाचार पत्रों में इतनी फुटेज मिले,ऐसे ही नहीं चलता, ऐसे ही नहीं चल सकता।पैसे भी चाहिए होते और मैन पावर भी,पॉलिटिकल और पावरफुल कनेक्शन भी।
इस आंदोलन में अकूत पैसा खर्च किया गया।
खालिस्तानियों और लिट्टे वालों के पैसे भी लगे थे इसमें।
लिट्टे ध्यान है? श्रीलंका के तमिल।
खालिस्तानी और लिट्टे दोनों के बहुत बड़े शत्रु कॉन्ग्रेस के लोग हैं। जबकि दोनों से भाजपा के नरम संबंध शायद ही किसी से छुपे हों।
2013 की कॉन्ग्रेस कम्युनिस्टों के इतने प्रभाव में नहीं थी,जितनी अब की कॉन्ग्रेस है।मनमोहन सरकार ने अमेरीका से परमाणु समझौते में वामपंथियों को औकात दिखा दी थी।
बहुत कुछ कहना नहीं चाहता पर अभी भी देख लो, मेरे पास लिंक ढूंढना पड़ेगा पर सर्च करोगे तो पाओगे 150 से अधिक ऐसे लोगों को वर्तमान भारत सरकार ने वीजा जारी किया है जो खालिस्तानी होने के कारण बैन थे।
करतारपुर कॉरिडोर को खोलना, सिख तुष्टीकरण की अति, सिद्धू का वनवास ऐसे ही नहीं है।
कॉन्ग्रेस खत्म हो रही है और आप हर जगह आप का विकल्प बन रही है।खालिस्तानी तत्व बढ़ते जा रहे हैं।सिख तुष्टीकरण बढ़ता जा रहा है।ये सब कुछ ऐसे ही नहीं है।कुछ लेने के बदले कुछ देने की बात है अराजकता बढ़ती जा रही है।अन्ना आंदोलन से जुड़ा हर व्यक्ति हर जगह सत्ता में है या सत्ता के करीब है या सत्ताधारियों को प्रभावित करने की स्थिति में है।पत्रकारिता में अन्ना आंदोलन से जुड़े लोग हैं, टीवी पर अन्ना आंदोलन से जुड़े व्यक्ति राज कर रहे हैं।सोशल मीडिया पर हर बड़ा हैंडल इन लोगों के लिये काम कर चुका है या कर रहा है।
फिर अन्ना आंदोलन असफल कैसे माना जाये?
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आपका -विपुल
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