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लेखक –विपुल
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तेल का खेल

अमेरिका से तेल आयात

भारत के पास कच्चे तेल के कुँए नहीं हैं ,हालांकि ढूंढने के प्रयास होते रहते हैं।समुद्र में भी।अभी शायद थोड़ा बहुत सफलता मिली है ,लेकिन उससे होंने वाला नहीं है कुछ।
इसी सम्बन्ध में छोटी सी बात कर रहा हूँ।भारत को पिछले साल सबसे ज़्यादा तेल आपूर्ति इराक ने की ,
उसके बाद अमेरिका (क्यों चौंक गये न ?)

फिर नाइजीरिया
और फिर सऊदी अरब
पांचवे नंबर पर यू ए ई।

भारत अपनी आवश्यकताओं के तेल का लगभग 95 प्रतिशत तेल आयात करता है।
आंकड़े आपको 84 प्रतिशत बताएंगे ।
पर दो नम्बर खेल हर जगह हैं।

पर पहले आज़ादी के बाद से हम अरब देशों से ही ज़्यादातर तेल आयात करते थे।
वेनेजुएला ,नाइजीरिया और सोवियत संघ से भी सप्लाई आती थी ।

जहां तक मुझे ज्ञात है, अमेरिका हमें तेल की सप्लाई नहीं करता था।मैं गलत भी हो सकता हूँ इस बात पर ।

इसलिए अरब देश हमारे लिये महत्वपूर्ण थे और फिलिस्तीन भी।

फिलस्तीन के समर्थन की मजबूरी

शीतयुद्ध के समय हम अप्रत्यक्ष रूप से सोवियत खेमे में थे इसलिए इज़राइल से निकटता बढ़ाने की जुर्रत नहीं कर सकते थे।मुँहजोरी अलग बात है पर हमारी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी तब।

फिलिस्तीन का साथ देने से हमें दोहरा लाभ मिलता था।एक तो हम सोवियत संघ की गुड बुक में रहते थे दूसरे अरब देश भी खुश रहते थे कि हम इज़राइल के साथ नहीं गए।

अगर आप कहेंगे कि सारे अरब देश तो अमेरिका के साथ थे तो मैं कहूंगा एक तो सब देश अमेरिका के साथ नहीं थे दूसरे कूटनीति अलग तरह की चीज़ है।राजनीति में अगर दो और दो पांच होते हैं तो कूटनीति में दो और दो का जवाब जेब्रा भी हो सकता है और Nacl2 भी ।और मज़े की बात है कि दोनों उत्तर सही होंगे।

अरब देशों को विशेष तौर पर सउदी अरब और यूएई को अमेरिका का खुला सपोर्ट था।ये देश ओपेक में हैसियत भी रखते थे इन्हीं के दबाव के कारण तेल की अंतरराष्ट्रीय खरीदी बेंची यूएस डॉलर में होने लगी ।अरबों को फायदा हुआ तो अमेरिका के साथ देने लगे।रूस से भी उनका बिगाड़ भी नहीं था।

तो तब भारत ने सही किया फिलिस्तीन का साथ देकर।
1989 तक इराक और कुवैत दोनों भारत के प्रमुख तेल सप्लायर थे।शीतयुद्ध के बाद स्थिति बदली थी।

ओपेक देश

91 के बाद अमेरिका ने भी भारत को सप्लाई शुरू की जो परमाणु परीक्षण के बाद बंद की थी।तब ईरान ने भारत का साथ दिया था बैकडोर से।पर ईरान से तेल आयात हमें अमेरिकी दबाव के कारण बंद करना पड़ा ।
वर्तमान में ओपेक जो कि तेल उत्पादक देशों का समूह है के सदस्य अल्जीरिया, अंगोला, भूमध्य रेखीय गिनी, गैबान ,ईरान, इराक, कुवैत, लीबिया, नाइजीरिया,कांगो, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात,वेनेजुएला हैं।
इसके अलावा अज़रबैजान, बहरीन, ब्रुनेई, कज़ाख़स्तान,मलेशिया, ओमान, रूस,सूडान, दक्षिण सूडान भी ओपेक प्लस के रूप में सदस्य हैं।

ये सारे देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के खेल के सारे नियम निर्धारित करते हैं।
अमेरिका ,कनाडा, मेक्सिको, नॉर्वे जैसे देश तेल उत्पादन करते हैं पर ओपेक के सदस्य नहीं हैं।
अमेरिका और मेक्सिको के पास तेल के बहुत भंडार हैं। इसलिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में ओपेक की दादागिरी से ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता ।दूसरे सऊदी अरब को अमेरिका से किसी सन्धि की वजह से अमेरिका को तेल देना ही पड़ता है।

हां !चीन के पास भी उसके मतलब भर के तेल के भंडार हैं ।बाकी वो रूस और वेनेजुएला से लेता है।अब अरब देश भी चीन की गुड बुक में आना चाह रहे हैं तो चीन को दिक्कत नहीं ।ईरान भी है उसके लिये।

अरब अभी भी महत्वपूर्ण हैं

भारत ने शीतयुद्ध के बाद आसियान और इज़राइल से सम्पर्क बढ़ाये हैं क्योंकि तब तक इज़राइल से अरबों के सम्बंध भी खराब नहीं रह गए थे।लेकिन भारत के लिये अरब देशअभी भी महत्वपूर्ण हैं ।
मोदी ऐसे ही यूएई और कतर कुवैत नहीं घूमते रहते ।

इसीलिए अरब देशों के ज़रा सा नाक भौं सिकोड़ने पर भारत सरकार दंडवत हो जाती है।
इधर रूस यूक्रेन युद्ध के बाद रूस ने जब भारत अपना को तेल खरीदने की ऑफर दी और भारत ने स्वीकार ली, तब अमेरिका नाराज हुआ।

कतर ,कुवैत,यूएई के कंधे पर रखकर अमेरिका ने बंदूक चलाई क्योंकि अमेरिका इस साल भारत का दूसरा बड़ा तेल सप्लायर था ।बाकी आप समझदार हैं

🙏🙏🙏
विपुल
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