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कन्नौज लोकसभा सीट -अखिलेश यादव और सुब्रत पाठक
द्वारा – विपुल मिश्रा

कन्नौज की लोकसभा चुनाव पर कुछ गंभीर बात।
चुनाव के मौसम में थोड़ा मैं भी बोलना चाहूंगा पर केवल अपने क्षेत्र पर।
यहीं का पता है बस।
केवल राजनीति विषय पर रुचि रखने वालों के लिये।

कन्नौज और अमेठी या रायबरेली सीट में अंतर है।
यहां शीला दीक्षित सांसद रहीं। बहुत काम किये, जनता से जुड़ी रहीं
हरदोई कन्नौज पुल और महिला अस्पताल का जीर्णोद्धार कर उसे विनोद दीक्षित अस्पताल का नाम देकर चालू अच्छे से चालू करवाना और लाख बहोसी पक्षी विहार तीन बड़े काम किये।


उसके बावजूद शीला दीक्षित 1989 में छोटे सिंह से हार गईं।
1991 में चंद्रभूषण सिंह मुन्नू बाबू भाजपा सांसद बने और 1996 में भी। पर कन्नौज में न समय दिया, न ढेले भर का काम करवाया और लोग शीला दीक्षित को हरवाने का अफसोस करने लगे।


इसी दरम्यान भाजपा की दशा बहुत खराब हो गई थी और कांग्रेस की दशा उससे भी खराब।
कांग्रेस के कद्दावर नेता राम औतार दीक्षित को कन्नौज से दस हजार वोट भी न मिले थे। सपा बढ़ रही थी और उधर भाजपा ने कन्नौज सीट नरेश अग्रवाल की लोकतांत्रिक कांग्रेस को बेच दी।
भाजपा का 1998 के बाद नामोनिशान सा मिट गया इधर। रामप्रकाश त्रिपाठी जरूर छिबरामऊ विधानसभा में कुछ मजबूत थे।
पहले प्रदीप यादव यहां से 1998 में सपा से जीते फिर 1999 में मुलायम सिंह खुद जीते थे। फिर अखिलेश भी यहां से तब जीते जब सामने डम्पी जैसा गुंडा बसपा से लड़ रहा था और लोकतांत्रिक कांग्रेस की प्रतिमा चतुर्वेदी जैसों को चार हजार वोट भी न मिले थे।
अखिलेश को भाजपा वोटों का पूरा समर्थन था तब।
उधर 2002 में सपा ने सरकार भी बना ली और कन्नौज वीआईपी क्षेत्र हो गया।


सुबह 5 से 11 के अलावा बिजली जाती नहीं थी।
खुद को कन्नौज का बता देने भर से सपा कार्यालय से लेकर सचिवालय तक विशेष ध्यान मिलता था।और इसके अलावा कुछ सड़कें वगैरह बनी।कुछ योजनायें कन्नौज आई।
शीला दीक्षित के बाद कन्नौज के लोग अखिलेश को मानने लगे।
2004 के आसपास जब कन्नौज में भाजपा स्ट्रेचर पर थी तब कन्नौज के सबसे पुराने सबसे अमीर घरानों में से एक जमुना प्रसाद पाठक के पौत्र सुब्रत को भाजपा में पैसा लगाने को चढ़ाया गया, पर सुब्रत ने यहां से अपना भविष्य बना लिया।
सुब्रत ने भाजपा में अंधाधुंध पैसा खर्च किया, पर अपने नाम पर।
थोड़े दिनों में भाजपा मतलब सुब्रत पाठक हो गया।2009 में सुब्रत अखिलेश के सामने चुनाव लड़े, बुरी तरह हारे।


कन्नौज शहर व्यापारियों का अड्डा है।
यहां भाजपा सपा में वैसी अदावत नहीं जैसे कन्नौज लोकसभा की छिबरामऊ विधानसभा में।
कन्नौज जिले में तीन विधानसभा हैं। कन्नौज तिर्वा छिबरामऊ।
कन्नौज में व्यवसाई ज्यादा हैं। तिर्वा ग्रामीण हैं , पर लोधी ज्यादा हैं और भाजपाई हैं लोधी।
छिबरामऊ में यादव बनाम ब्राह्मण, सपा बनाम भाजपा चरम का रहता है।
कन्नौज लोकसभा में इनके अलावा बिधूना रसूलाबाद भी हैं पर वहां भी छिबरामऊ जैसे बहुत कटुता नहीं है।
2012 में उत्तर प्रदेश में सपा सरकार बनी।
अखिलेश मुख्यमंत्री बने सीट खाली हुई।
डिंपल यादव आईं और सुब्रत को टिकट न देकर भाजपा ने किसी ऐसे चिलंटू को टिकट दिया, जो सपा से पैसे लेकर बिक गया।
मतलब हद ये थी कि वो नामांकन के अंतिम दिन लखनऊ से वाया कानपुर कन्नौज आ रहा था और शाम 5 बजे पहुंचा, फिर बहाना बताया कि रास्ते में कुछ लोगों ने उसे बातों में उलझा लिया था। डिंपल यादव निर्विरोध सांसद।मतलब कन्नौज सीट भाजपा ने सपा को 2012 में गिफ्ट कर दी थी।


अब 2014।
2014 में फिर सुब्रत बनाम डिम्पल हुआ। सुब्रत ने गांव गांव अच्छी पैठ बना ली थी, मोदी फैक्टर भी था। हर विधानसभा में अच्छा लड़े पर छिबरामऊ से 25 हजार वोटों से हारे , वही हार का अंतर था।
पर बात यहीं खत्म न हुई।
एक बात जो मुझे पहले बतानी थी कि डिंपल के निर्विरोध चुनाव के पहले 2011 में नगर पालिका कन्नौज चुनाव में सुब्रत की माताजी नगर पालिका अध्यक्ष लड़ी थीं और जीती थीं।


सपा के प्रत्याशी ने खुला आरोप लगाया था कि सपा ने तन मन धन से सुब्रत की माताजी की मदद की थी और सपा प्रत्याशी को धोखा दिया।
जो कन्नौज के होने के नाते मैं बता सकता हूं कि सच ही था लगभग 😂😂।
इसी का बदला 2012 में चुकाया गया था।
2014 में पहली बार सुब्रत और अखिलेश (डिंपल) वाकई लड़े।
सुब्रत 25 हजार के मामूली अंतर से हारे थे।
पर इधर सपा सरकार ने कन्नौज में भरपूर पैसा लुटाया, उधर सुब्रत ने भी बहुत मेहनत की।
सपा शासन 2012 -17 में कन्नौज के बारे में ये कहूंगा कि भले मैनपुरी, इटावा में कुछ भी हुआ हो, कन्नौज के छिबरामऊ में कुछ भी हुआ हो, पर कन्नौज और तिर्वा में वही था कि डायन भी 7 घर छोड़ देती है।
यहां सपा ने काम किया, पैठ बनाई।


मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर तो आज भी न आते, पर बनाया सपा ने था।
इंजीयनरिंग कॉलेज में पढ़ाई भले ही आज भी न हो, पर बनाया सपा ने।
मेगा फूड प्रोजेक्ट और भी कई चीज, स्टेडियम की जगह भी देखी गई थी।बिजली बेशुमार आती थी।कन्नौज वालों की सिफारिशें मानी जाती थीं
कन्नौज के लोग खुद को वीआईपी मानते थे।
उस माहौल में सुब्रत ने लोगों में पैठ बनाई।
बड़ी बात थी।


2022 के पहले तक कन्नौज सदर विधानसभा जहां के सुब्रत हैं, सपा ही जीतती थी। सुब्रत ने 2014 से 2019 बहुत संघर्ष किया।
2015 में उसके सर की बोली लगी, हमला हुआ। जेल गया और भाजपा ने बहुत साथ नहीं दिया।
शैलेंद्र अग्निहोत्री (बाद में चेयरमैन बना), छोटू यादव, श्यामजी मिश्रा पर आज भी मुकदमे चल रहे हैं।
आप सोचिए अमेठी में राहुल गांधी जो किसी पद पर न थे उनसे 50 हजार वोटों से हारने पर स्मृति ईरानी को मंत्रालय मिल गया , वहीं सपा के गढ़ में वर्तमान मुख्यमंत्री से सीधे टक्कर लेकर 25 हजार से हारने वाले सुब्रत पाठक को किसी ने न पूंछा।
खैर।
2019 में पांसा पलटा।
सुब्रत जीते।
सुब्रत जीते, डिम्पल हारी।


जीत हार का आंकड़ा वही 25 – 26 हजार था।
5 साल में कई बार सुब्रत को कन्नौज में अपनी ही सरकार में अधिकारियों के खिलाफ लड़ना पड़ा। उधर स्मृति ईरानी राहुल को हरा कर स्टार बन गईं।
जबकि अमेठी में राहुल को हराने से बड़ा कारनामा कन्नौज में डिंपल को हराना है।
2024 में फिर अब अखिलेश और सुब्रत आमने सामने हैं।
एक बात मैं आपको डंके की चोट पर बता दूं।
कन्नौज में सिर्फ और सिर्फ सुब्रत पाठक का माद्दा है कि अखिलेश एंड कम्पनी के सामने अच्छा लड़ पाए, जीत पाये।
यहां स्मृति ईरानी से लेकर जे पी नड्डा तक को लड़वा दें तो छींकें आ जायेगी उन्हें।


सिर्फ मोदी शाह और राजनाथ की बात छोड़ दें। वो जीत सकते हैं।
बाकी कन्नौज कानपुर नहीं है कि कोई भी ऐरा गैरा आकर खड़ा हो जाए और कमल निशान पर जीत जाये।
इस सीट पर सपा और अखिलेश पूरी जान लगा देते हैं और यहां के व्यक्ति को अखिलेश के सामने सुब्रत जैसा व्यक्ति ही चाहिए जो लोकल हो, सर्वसुलभ हो और जो लड़ने से भी न डरे। जेल छापा सब हो चुका उसके साथ। सीधी गोली चल चुकी, साल भर जेल रह आया।व्यापार का नुकसान उठाया।और अपने आदमियों का साथ दिया।
व्यक्तिगत तौर पर कन्नौज के व्यक्ति के लिये सुब्रत और अखिलेश दोनों अच्छे हैं, सुलभ हैं, काम आते हैं, बात सुनते हैं। और दोनों से कोई बात कहो तो पूरी करने का प्रयास करते हैं। छोटी मोटी मदद,छोटी नौकरी लगवा देते हैं।


इसलिए मुकाबला टक्कर का रहता है।
थोड़ी बढ़त सपा को।
मुकाबला कांटे का
🙏
विपुल मिश्रा
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