राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है
प्रस्तुति – विपुल मिश्रा
“राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाये सहज सम्भाव्य है।।”
मैथिली शरण गुप्त ने ये जो पंक्तियां लिखी हैं, ये राम के चरित्र का वास्तविक सार ही है।
आगे बढ़ने के पहले मैं आपसे केवल इतना निवेदन करूंगा कि आप एक मिनट को आँखें बंद कर जरा गंभीरता से सोचें कि भारत भर में कितने रामपुर, रामगढ़ और रामनगर हैं? भारत के अंदर इन नामों के गांव, शहर, कस्बों, मोहल्लों और टोलों को जोड़ेंगे तो संख्या कल्पनातीत होगी।
लेकिन यहीं मत रुकिये!
अब भारत भर में कितने जीवित और मृतक लोगों के नाम के आगे और पीछे राम का नाम लगा है, ये सोचिये।
मेरे विचार से इतने भर से आप राम के नाम का भारत में महत्व समझ जायेंगे। आज भी शादी की जयमाल रस्म में कोई न कोई कह ही देता है कि बिलकुल सीताराम सी जोड़ी है ये। आपसी बातचीत के संबोधन में राम राम, जय राम जी की जैसे संबोधन उत्तर भारत में आम हैं और राम नाम सत्य है, हर हिंदू की अंतिम यात्रा में बोला जाता है।राम समाज से जुड़े हैं। समाज के हर तबके से जुड़े हैं। राम आपके इतिहास,भूगोल, दर्शन, समाज और समाज शास्त्र से जुड़े हैं, वो भी व्यापक रूप में।
और इसका कारण भी है।
अगर आप थोड़ा गंभीरता से विचार करो तो भारतीय समाज में राम की महत्ता उनके अयोध्या के राजकुमार होने या उनके विष्णु के अवतार होने के कारण नहीं रही। राजा राजकुमार और भगवान समाज के आम आदमी नहीं होते जिनसे ऐसा अटूट रिश्ता बन पाये जैसा राम का भारतीय सनातन जन से है।
राम एक आदमी की तरह वन वन घूमे, राज्य से बहिष्कृत ही रहे। उनकी पत्नी को छल से उस समय का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति धोखे से हर ले गया, उन्होंने एक आम आदमी की तरह विलाप भी किया, एक आम आदमी की तरह अपने मित्रों से सहायता भी ली और उसके बाद अपने बल शौर्य साहस और रणनीति से उस शक्तिशाली शासक के राज्य का विध्वंस कर न सिर्फ अपनी पत्नी को वापस प्राप्त किया बल्कि इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ दी।
राम आपको एक साधारण पारिवारिक व्यक्ति की तरह दिखेंगे, जो अपने भाइयों के साथ खेलता है, जिसके परिवार में कलह है,फिर भी उसे अपने भाइयों से प्रेम है और अपने पिता के अपनी माता को दिये वचन की रक्षा करने हेतु चौदह साल का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, वो भी तब उनके राजा बनने में उनकी माता और उसकी दासी को छोड़ किसी को आपत्ति नहीं।
और यहीं पर राम साधारण से असाधारण होते दिखते हैं।
परिवार में शांति रखने के लिये राज्य को ठोकर मारना साधारण बात होती भी नहीं।
लेकिन इसके बाद की राम की साधारण से असाधारण बनने की यात्रा अभूतपूर्व है। हमें पता चलता है कि निषादराज उनके सहपाठी हैं, केवट को देने के लिये उनके पास विशेष धन नहीं है। और उनके जिन भाई के लिये वो राज्य छोड़ आये हैं, वो उन्हें खुद राज्य लौटा रहा है, पर उनके लिये पिता के वचन की रक्षा ज्यादा मायने रखती है। यही नहीं पास में कोई सेना न होते हुये भी वन में वास करते ऋषियों की रक्षा का संकल्प एक आत्मविश्वास से भरा पूर्ण पुरुष ही ले सकता था।
“निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह।।”
अरण्य काण्ड दोहा नंबर 9
राम अपनी पत्नी की इच्छा का सम्मान करते दिखे, जब वो अपनी पत्नी सीता के लिये स्वर्ण मृग के पीछे गये, अपने परिवार के संबंधों की रक्षा करते दिखे जब जटायु का अंतिम संस्कार उन्होंने अपने पिता की तरह किया।
और एक एंग्री यंग मैन हीरो दिखे, जब वो मरणासन्न जटायु से कहते हैं कि –
“सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ।।”
“सीता के हरण की बात स्वर्ग में मेरे पिता को मत बताना , मैं अगर राम हूं तो दशानन अपने कुल सहित मेरे पिता को ये बताने आयेगा।”
अरण्य काण्ड दोहा नंबर 31
पूरी रामकथा में ये सबसे महत्वपूर्ण संवाद मुझे लगा जहां बगैर कोई गर्व या अहंकार दिखाये राम पूरे आत्मविश्वास से ये कहते हैं कि वो अपनी प्रिय पत्नी के लिये अपने समय के सबसे शक्तिशाली शासक को उसकी सेना और कुल सहित नष्ट कर देंगे। और वो जब ये कह रहे होते हैं तब उनके पास उनके एक वनवासी छोटे भाई के अलावा कोई और योद्धा नहीं होता।
एक पल को आप भूल जाओ कि राम भगवान थे और तब सोचो कि एक अपने राज्य से बहिष्कृत व्यक्ति जिसकी पत्नी का हरण किसी शक्तिशाली शासक ने कर लिया हो और जिसके पास योद्धाओं के नाम पर मात्र उसका छोटा भाई हो, उसका ये कथन मात्र प्रलाप नहीं लगता क्या?
पर राम का नाम आजतक इसीलिए गूंजता है कि इसके बाद उन्होंने अपनी सारी युक्तियां इस्तेमाल करके, अपने शौर्य का इस्तेमाल करके, अपरिचितों को अपना बना कर, किसी दूसरे राज्य की सेना को लंका की सेना से लड़ा कर और उसके पहले किष्किंधा पर रावण के मित्र बाली की जगह अपने मित्र सुग्रीव को स्थापित करवा के और उसके बाद रावण का कुल सहित विनाश कर अपना प्रण पूरा किया।
और हां, शूर्पनखा का प्रणय निवेदन स्वीकार कर के भी राम बहुत कुछ हासिल कर सकते थे, पर उन्होंने अपनी पत्नी को धोखा नहीं दिया।
अगर आप थोड़ा गंभीरता से सोचें तो भारत के आम जन में राजा के लिये इतना जुड़ाव नहीं है, जितना उन वनवासी राम के लिये जो महलों में नहीं रहते थे, वन में रहते थे, कंदमूल फल खाते थे और एक वानर उनका सबसे विश्वासपात्र था, कोई सेनापति नहीं। ये अलग बात है कि साधारण से दिखते राज्य विहीन राम सुग्रीव और विभीषण जैसों को राज्य दान कर देते थे।
राम वो हैं जो अपने राज्याभिषेक के पहले दूसरे राजाओं को सत्ता से हटाकर दूसरे राजाओं को गद्दी दिला देते थे, बगैर अपनी सेना के दूसरों की सेना से दूसरों की सेना को हरवा देते थे। विपक्षियों के छद्म नैतिकता के जाल में नहीं फंसते थे। राक्षसी स्त्री ताड़का को भी स्त्री होने का लाभ दिये बिना तत्काल वध कर देते थे और बिना संकोच किए बाली को छुप के भी मार देते थे क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में यही उचित भी था। भाई का साथ देते हैं, मित्र का साथ देते और लेते हैं। पत्नी से प्रेम करते हैं और जिम्मेदारियों से नहीं भागते। राम पूर्ण पुरुष हैं। भारत के आदर्श पुरुष। हीरो।
उन मेरे आराध्य वनवासी राम को सादर नमन जो भारत के जन के अंतर्मन से जुड़े हैं।
और हनुमान जी को भी नमन जो हमारे बीच अब तक हैं।
और हां, तुलसीदास जी का ये छंद मुझे बहुत प्रिय है। इस पर बात समाप्त करते हैं।
“जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।”
जय रामजी की
🙏🙏
विपुल मिश्रा
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