ट्विटर सेलेब्स की प्रेमकथायें-फाबा की प्रेमकथा
आपका -विपुल
रामपुर के पुश्तैनी पाठक परिवार में जन्मे मुकेश पाठक के बचपन से दो ही शौक थे।
एक चाट पकौड़ी खाना और दूसरा मक्खियों को पकड़ के उनकी टांग में डोरी बांध के उड़ाना।
मोहल्ले के शरीफ लड़कों से गालियों की क्लास का प्राइमरी कोर्स शत प्रतिशत अंकों से पास करने के बाद जब मुकेश पाठक पहली बार प्राइमरी स्कूल पहुंचे तो ही उन्हें मैकाले वाली शिक्षा व्यवस्था से घृणा हो गई। पहले ही दिन मुर्गा कौन बनाया जाता है भाई?
और वो भी बस इतनी सी गलती के लिए ।
बगैर पूंछे दूसरे बच्चों के टिफिन खाना, प्रिंसिपल को बुढ़ऊ बोलना और क्लास टीचर पर थूकना इतनी बड़ी बात नहीं थी कि ऐसी सजा दी जाती
खैर!
गिरते पड़ते पास होते जब मुकेश पाठक प्राइमरी पास करके छठे में आये तो एक दिन ऐसा आया कि उन्हें प्रेम हो गया।
फालकिन्सन बारबरा से।
दरअसल छठी क्लास में पढ़ते हुए सातवां ही दिन था जब फालकिंसन बारबरा मुकेश पाठक से टकराई।
क्लास के ठीक बाहर मुर्गा बने मुकेश पाठक की पीठ पर दो ईंटे मास्साब ने रखे थे ।
फालकिंसन बारबरा ने उनको हटा दिया और हाथ पकड़ के मुकेश पाठक को क्लास में ले आई थी।
फालकिंसन बारबरा के रौबीले स्वभाव से क्लास टीचर अवस्थी जी भी प्रभावित हुए थे सो फालकिंसन बारबरा को कुछ न कहा,
ये अलग बात है कि वो फालकिंसन बारबरा यहां के नए बीडीओ मैनचेस्टर बारबरा की लड़की थी।
ईसाई फालकिंसन बारबरा सांवले रंग की लड़की थी और जब रामभक्त हिंदू मुकेश पाठक की उससे आंखें मिलीं तो एक प्रेम कहानी की शुरुआत हो गई।
मुकेश पाठक और फालकिंसन बारबरा में नजदीकियां बढ़ने लगीं।
मुकेश पाठक उसी रुमाल से नाक पोंछते थे जिससे फालकिंसन बारबरा अपनी नाक पोंछती थी और वही टिफिन खाते थे जो फालकिंसन बारबरा लाती थी।
गणित में कमजोर फालकिंसन बारबरा को मुकेश पाठक अक्सर अपने आम के बाग में दोपहर में गणित पढ़ाने भी ले जाते थे।
6 साल हो गए थे और मुकेश पाठक और फालकिंसन बारबरा अब बारहवीं में थे।
एक दिन फालकिंसन बारबरा ने मुकेश पाठक को अपने पापा मैनचेस्टर बारबरा से मिलने बुलाया।
उन्हें मुकेश पाठक पसंद आये। उन्होंने मुकेश पाठक से उनके घर का पता लिया और अगले ही दिन मुकेश पाठक और फालकिंसन बारबरा के रिश्ते की बात करने मुकेश पाठक के घर पर पहुंचे।
पर मामला बिगड़ गया।
मैनचेस्टर बारबरा दरअसल अनुसूचित जाति का मुन्नालाल बालमीक था जो मुकेश पाठक के पुराने गांव में रहने वाले भूरेलाल बालमीक का वो लड़का था जिससे बचपन में मुकेश पाठक के पिताजी की कस कर लड़ाई हुई थी।
दोनों ने एक दूसरे को पहचाना और रिश्ते को मना कर दिया।
मुकेश पाठक के पिताजी ने इस लिये कि वो अंतर्जातीय विवाह नहीं चाहते थे और फालकिंसन बारबरा के पिता ने इसलिये कि उस वक्त मुकेश पाठक के पिताजी पटरे का पायजामा पहने थे ।
लेकिन असली दुख की बात ये थी कि उस समय मुकेश पाठक कुछ नहीं कर पाये, किसी को समझा बुझा नहीं पाये, क्योंकि वो लैट्रीन करने गए थे।
शादी की खुशी में चाट पकौड़ी कुछ ज्यादा ही खा लिए थे न!
जब मुकेश पाठक और फालकिंसन बारबरा को अपने अपने पिता के आपसी झगड़े के बारे में पता चला तो बहुत दुखी हुये।
फालकिंसन बारबरा ने ब्यूटी पार्लर में पहली बार वैक्सिंग करवाई और मुकेश पाठक ने पहली बार सॉल्यूशन का नशा किया।
आज बीड़ी काम नहीं कर रही थी।
दोनों ने भागने की योजना बनाई।
13 तारीख को 3 बजे की ट्रेन थी और दिन शुक्रवार था।
मुकेश पाठक खुश थे। घर से 10 बजे ही खा पी के निकले। स्टेशन पर बैठे थे। तब मोबाइल फोन नहीं होते थे।
2 बजे पाठक जी फिर भूखे हो गए, दिन भी खुशी का था।
भरपूर चाट पकौड़ी खा लिये।
ठीक 2 बजकर 45 मिनट पर उनके पेट में तब जबर्दस्त गुड़गुड़ हुई जब सामने से फालकिंसन बारबरा उन्हें देख कर हाथ हिला रही थी और वो देख न पा रहे थे।
खतरा बढ़ता उसके पहले ही पाठक जी शौचालय की तरफ भागे ।
और इसके बाद सब कुछ सही से हो गया, सिवाय इस बात के कि फालकिंसन बारबरा नाराज होकर वापस चली गई।
मुकेश पाठक के कुछ समझने के पहले ही मैनचेस्टर बारबरा का ट्रांसफर भी रामपुर से रॉबर्ट्सगंज हो गया था।
कुछ साल डिप्रेशन में रहते रहते पाठक जी ने दिल्ली से इकोनॉमिक्स सोशलोजी और पॉलिटिकल साइंस में डिग्री ली।
और फिर अपने पैरों में खड़े होने का फैसला लिया।
ये अलग बात है कि एक चरसी चेन स्नैचर साकेत की गलत सोहबत में पड़ जाने के कारण उनके पिताजी ने पहले ही उन्हें जायदाद से बेदखल कर दिया था।
इस चेन स्नैचर साकेत की खासियत थी कि बिना चोट पहुंचाये ये महिलाओं के टॉप्स और बुंदे भी सफाई से पार कर सकता था।
दोनों की मित्रता तब हुई थी जब काम युद्ध फिल्म का टिकट खरीद रहे साकेत के पास दो रुपए कम पड़े थे और मुकेश पाठक ने उसे टिकट दिलवा दी थी।
दादा कोंडके और रामसे ब्रदर्स की फिल्मों के शौकीन मुकेश पाठक को साकेत में अपना रहनुमा दिखा जब साकेत ने दिल्ली यूनिवर्सिटी एग्जाम में बिना कुछ लिखे प्रथम श्रेणी से पास कराने की गारंटी दी थी।
पाठक ने रिस्क लिया और साकेत ने कर के दिखाया।
रुपए सिर्फ 5 हजार लगे थे, जो पाठक जी अपने पिताजी की तिजोरी से चुरा के लाए थे।
तो साकेत की सलाह पर ही मुकेश पाठक कानपुर आ गये और साकेत की ही सलाह पर कानपुर की सबसे प्रतिष्ठित जगह मूलगंज में कमरा लेकर रहने लगे।
उन्हें अपने सोरसेज से साकेत ने एक नहीं तीन तीन अच्छी नौकरी दिलवा दी थीं।
सुबह दूध बांटने के बाद दोपहर में वो हकीम उस्मानी के पैंपलेट चिपकाते थे और रात में कोलकाता बैंड में झुनझुने बजाते थे।
और झुनझुने बजाते हुए ही एक शादी में उन्हें फालकिंसन बारबरा दिख गई।
झुनझुना लेकर वो सीधे फालकिंसन बारबरा के सामने पहुंचे।
“हाय!”
“कुत्ता!”
क्या मतलब? पाठक जी चौंके।
“कुत्ता है तुम्हारे पीछे!”
फालकिंसन बारबरा गुस्से से बोली।
वो बहुत गुस्सा थी।
शादी की पार्टी में फालकिंसन बारबरा के चरणों में बैठ कर पाठक ने उसे मनाने की कोशिश की। अपनी हालत समझाई कि उस दिन उनकी गलती नहीं थी, गलत वक्त पर लैट्रिन आने से गलतफहमी हो गई थी।
फालकिंसन बारबरा ने अगले दिन मुकेश पाठक को कानपुर के बीडीओ आवास पर बुलाया जहां उसके पिता कार्यरत थे और पाठक के सामने एक शर्त रखी कि अगर वो एक महीने में दस लाख रुपए कमा के दिखा दें तो वो उनसे शादी कर लेगी।
मुकेश पाठक डिप्रेशन में आ गये।
जब ये बात उन्होंने अपने दोस्त साकेत को बताई जो आजकल कानपुर में ही था तो उसने कुछ पल सोच कर गंभीरता से मुकेश पाठक को देख कर कहा:-
“जिस्म बेचना होगा।”
“ग्रोसरी के! क्या बोल रहा?”
पाठक जी दहल ही उठे थे।
“अबे वो मतलब नहीं।”साकेत ने समझाया।
“हमारे बॉस डॉक्टर सुधांशु जी हैं। वो किडनी वगैरा भी बेचते हैं। उनके पास चलने को कह रहा हूं!”
खैर फिर मुकेश पाठक डॉक्टर सुधांशु जी के पास पहुंचे।
गोरे चिट्टे स्मार्ट और स्टाइलिश डॉक्टर सुधांशु पुराने जगलर थे। बिहार में पशुओं के कृत्रिम गर्भाधान केंद्र में कंपाउंडर रहे डॉक्टर सुधांशु ने गाय भैंसों के इलाज से बहुत नाम और शोहरत इकट्ठा की थी और फिर दिल्ली में हेडक्वार्टर बना लिया था।
शातिर अपराधियों की तरह इन्होंने बिहार के बाहुबली नेताओं की मदद से एक एनजीओ भी बना लिया था जो न सिर्फ काला धन सफेद करता था बल्कि मानव तस्करी में इनकी मदद भी करता था।
साकेत जैसे न जाने कितने अपराधियों के गुरू डॉक्टर सुधांशु आजकल कानपुर में ही थे।
आजकल यहां के जेबकतरे मेहनत कम कर रहे थे, टाइट करना था।
एक बुजुर्ग की तरह उन्होंने मुकेश पाठक को सलाह दी कि अगर वो एक महीने में दस लाख कमाना चाहते हैं तो यूएई चले जाएं। वो भिजवा देगें। एक घरेलू नौकर या ड्राइवर भी खाड़ी देशों में बीस लाख महीने कमा लेता है।
पाठक जी तैयार हो गये।
वैसे तो इस काम के डॉक्टर सुधांशु 50 हजार लेते थे, पर पाठक जी के लिए वो ये काम फ्री में करने को तैयार हो गए थे।
ये अलग बात थी कि उनके 20 लौड़ों के नए शिपमेंट से एक पाठक की उम्र का लड़का फरार हो गया था और उन्हें कोटा पूरा करना था।
बीस लौंडे मांगे थे अबकी शेख ने।
बीसवें पाठक थे।
डॉक्टर सुधांशु अपने वादे पूरे करने के लिये प्रसिद्ध थे।
अपराधियों में।
कानपुर से पुष्पक एक्सप्रेस से मुंबई और फिर बंदरगाह।
फिर काला भूत शिप और उसमें कंटेनर।
साकेत यहां तक साथ था पाठक के।
पाठक अभिभूत थे साकेत की मित्रता से।
ये अलग बात थी कि साकेत को सही सलामत कंटेनर तक पहुंचा कर रिपोर्ट करने की की जिम्मेदारी डॉक्टर सुधांशु ने दे रखी थी ।
डॉक्टर सुधांशु अपने वादे पूरे करने के लिये प्रसिद्ध थे
अपराधियों में।
40 घंटे सफर के बाद काला भूत शिप ओमान के बंदरगाह पर रुका।
इस एक कंटेनर में 20 लोग थे।
ऊपर हवा आने के लिए कुछ छेद थे।
दिक्कत तो हो रही थी पर मुकेश पाठक ने मैंने प्यार किया देख रखी थी।
प्यार के लिए पैसे तो कमाने ही थे।
चोर लुटेरों में भी कभी कभार अंतर्रात्मा जाग जाती है। साकेत की भी जागी।उसे अच्छा न लगा कि उसका दोस्त पाठक एक शेख के यहां पहुंचे और उसे जाने क्या क्या करना पड़े।
उसने चुपचाप एक टिप अपने सूत्रों के हिसाब से भारतीय और ओमान के कस्टम अधिकारियों को पहुंचा दी कि काला भूत शिप में एक कंटेनर में कुछ कबूतर बंद हैं।
कस्टम विभाग कबूतरबाजी के खिलाफ़ हमेशा ही रहता है, किसी भी देश का।
मुकेश पाठक सहित 20 लोग पकड़े गए और भारत वापस भेजे गए।
मुकेश पाठक सोच रहे थे कि अबकी किस्मत ने फिर साथ नहीं दिया था।
एक बिहारी मजदूरों को भारत लौटाने वाले शिप में भर कर पाठक जी को वापस भेजा गया।
उनके पिताजी ने उनको मुंबई से रिसीव किया और चार छः झापड़ रसीद किए।
पाठक फिर रामपुर आ गए थे।
खेती बाड़ी में उनका मन नहीं लग रहा था ,उन्हें फालकिंसन बारबरा की याद आ रही थी।
एक दिन पिताजी को बिना बताए मुकेश पाठक कानपुर के बीडीओ आवास पहुंचे। वहां उन्हें पता चला कि मैनचेस्टर बारबरा अब रिटायर हो चुके हैं और दिल्ली में रहते हैं।
मुकेश पाठक ने मैनचेस्टर बरबरा का पता लिया और दिल्ली पहुंचे।
फालकिंसन बारबरा अब एक न्यूज़ चैनल में एंकर बन चुकी थी।
उसने मुकेश पाठक को बेहद घृणा भरी नजरों से देखा और बताया कि अब वो रामपुर के छिछोरों से सम्पर्क नहीं रखती, ऊंचे ऊंचे अफसरों से सम्पर्क है।
और वो ऊंचा अफसर मुकेश पाठक को दिख भी गया।
मनीष सेबेस्टियन।
कुक्कुट मंत्रालय का सेक्शन ऑफिसर।
जिसके साथ वो हाथों में हाथ डाल निकल गई।
ये मनीष सेबेस्टियन अपने हाव भाव से पहली ही नजर में मुकेश पाठक को इतना भारी छिनरा लगा कि उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि ये अफसर हो भी सकता है।
पाठक ने साकेत की मदद से अपने स्तर पर पता लगाया कि इस आदमी ने एक फर्जी जनजाति जाति प्रमाण पत्र बनवा के नौकरी पाई है ।
और ये मनीष सेबेस्टियन खुद को इंडोनेशिया केे अंतिम आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाला बताया करता था।
जबकि लगभग दस साल पहले ये लड़कीबाज़ी में पकड़ा भी गया था और तब इसका नाम मनीष श्रीवास्तव हुआ करता था।
फालकिंसन बारबरा के सामने खुद को इंटलेक्चुअल दिखाने के लिये 1960 की मनोहर कहानियों की कहानियां थोड़ी घुमा के लिख देता था और तारीफें पाता था।
ज्यादा कुछ करना नहीं पड़ा मुकेश पाठक को।
बस एक दिन कुक्कुट मंत्रालय के सेक्शन ऑफिसर मनीष सेवेस्टियन को चाय पर बिठा के समझाना पड़ा कि नकली जाति प्रमाण पत्र से नौकरी जा सकती है , पुराने केस खुलने से जेल हो सकती है और फालकिंसन्न बारबरा के अगल बगल दिखने से जान भी जा सकती है।
मनीष सेबेस्टियन मुकेश पाठक की बातों से प्रभावित हुआ और उन्हें 5 लाख रुपए का चेक दे गया।
ब्लैकमेलर थोड़े ही हैं पाठक जी।
कुछ टाइम लगा, थोड़ी मौगा गिरी पड़नी पड़ी पाठक जी को और फिर फालकिंसन बारबरा मान ही गई।
पाठक जी तो कन्वर्ट होने को भी तैयार हो गए थे।
13 तारीख को 3 बजे चर्च में शादी रखी गई।
पाठक जी ने अपने पिताजी को बताया नहीं था और फालकिंसन बारबरा के पिता मैनचेस्टर बारबरा उर्फ मुन्नालाल बालमीक को एतराज नहीं था, वैसे भी वो अपनी पत्नी के साथ केन्या में थे चर्च के काम से।
12 बजे ही मुकेश पाठक चर्च पहुंच गए थे। साकेत साथ थे
2 बजे तक उनको भूख लग आई।
बाहर चाट वाले का ठेला लगा था।
दबा कर चाट खाई मुकेश पाठक ने।
ठीक 2 बज कर पचास मिनट पर पाठक जी के पेट में ऐसी गुड़गुड़ हुई कि सहन न हुआ।
शौचालय था नहीं चर्च में।
थोड़ी दूर जाना पड़ा।
पूरा काम निपटते निपटते आधा घंटा लगा उस दिन पाठक जी को।
लौट के चार बजे जब चर्च पहुंचे तो फालकिंसन बारबरा जा चुकी थी।
साकेत अपने चेन स्नैचिंग के काम में बिजी था।
उस दिन के बाद फालकिंसन बारबरा कभी दिखी नहीं मुकेश पाठक को।
पाठक जी निराश होकर अपने गांव लौटे रामपुर।
मनीष सेबेस्टियन से मिले 5 लाख रुपयों से शहद का धंधा शुरू किया।
अब तो शादी शुदा हैं।
बीबी बच्चे वाले हैं।
पर मुकेश पाठक आज भी फालकिंसन बारबरा को नहीं भूले हैं।
उनकी कंपनी का नाम ही फाबा हनी है।
एक गमजदा आशिक की तरह दाढ़ी भी बढ़ाए रखते हैं।
और हां!
अब मुकेश पाठक जी ने चाट पकौड़ी खाना छोड़ दिया है।
मधुमक्खियों के उंगली अभी भी करते रहते हैं।
आपका -विपुल
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