सत्या चौधरी
नरेन्द्र मोदी वाकई भाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसा विपक्ष मिला।संसद एक ऐसी जगह है जहाँ विपक्ष अपने विचार प्रकट कर सकता है, विरोध प्रकट कर सकता है।
चुनावी भाषण को तो आम जनता रैली के बाद भूल जाती है ।चुनावी भाषण मीडिया में कुछ घंटे और सोशल मीडिया में कुछ दिन रहते हैं फिर उनको कोई याद नहीं रखता।चाहे उस चुनावी भाषण में आपने कितने ही अच्छे मुद्दे उठाये हों।पर संसद में दिया गया अच्छा वक्तव्य सदैव याद रखा जाता है ।चाहे वो अटल बिहारी बाजपेई का कोई भाषण हो या सुषमा स्वराज का कोई वन लाइनर ।
चाहे वो प्रमोद महाजन हों या कोई और नेता, इन सब के सबसे अच्छे व्यक्तव्य संसद में ही आये हैं । वो वक्तव्य जो जनता को याद रहे हैं , याद रहते ही हैं । संसद में कही गई किसी भी बात के मायने होते हैं।और तो और पचास साल के युवा कांग्रेसी नेता राहुल गांधी का भी कोई भाषण यदि सबसे अच्छा था तो वो संसद में ही आया हुआ है। पिछली लोकसभा में। शायद आपको याद हो।हालांकि इतने अच्छे भाषण के अंत में फिल्मी स्टाइल में नरेंद्र मोदी को गले लगा कर राहुल गांधी ने स्वयं इसकी अहमियत कम कर दी।
और इतना ही कम नहीं था कि देश की सबसे कठोर शख्सियतों में से एक लौह महिला स्वर्गीय इंदिरा गांधी के पौत्र और भारत के शायद सबसे सुशील और सज्जन राजनेताओं में से एक पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी ने अपने साथी सांसद की तरफ़ नैन मटक्का करके अपने ही भाषण की अहमियत कम कर दी।
इस बात को शायद सभी जानते हैं कि कोई भी सांसद यदि संसद में बात उठाता है तो फ़ायदा मिलता ही मिलता है।
विपक्ष के लिये , विपक्षी दल के राजनेता के लिये यदि कोई सबसे अच्छी जगह है जहां वह अपनी बात प्रखरता से रख सकता है जिसे पब्लिसिटी भी मिले, जिस से जनता भी सहमत हो तो वो जगह संसद ही है।
पर भारत के केंद्रीय विपक्ष को पता नहीं कौन गाइड करता आया है कि वो उन सब मुद्दों पर संसद की कार्यवाही नहीं चलने देती, जिन मुद्दों का 99% जनता से कोई सरोकार होता ही नहीं है। संसद का एक पूरा सत्र पेगासस जासूसी मामले के नाम पर बर्बाद कर दिया, जिसके बारे में आम भारतीय जनता शायद ही जानती हो और जिससे आम भारतीय जनता को कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता था ।
उल्टा विपक्ष को नुक़सान और हुआ।
फिर एक सत्र खराब किया गया संसद के अंदर ख़राब व्यवहार करने वालो के निलंबन के विरोध में ।
जबकि फ़ुटेज कुछ और ही कहानी कह रहे थे ।
सबने देखा।
आजकल सच्चाइयां छुपती नहीं। तो विपक्ष को इस सब से फ़ायदा कम हुआ नुक़सान ज़्यादा।
अब भारतीय विपक्षी दल अडानी के मुद्दे पर पर सत्र नहीं चलने दे रहे हैं।
एक सीधी सी बात ये है कि शेयर मार्केट में लिस्टेड कोई भी व्यापारिक कंपनी ,एक व्यापारिक कंपनी ही तो है ।
ये कंपनी कभी फ़ायदे में आयेगी तो कभी नुक़सान में भी आयेगी। पर इस मुद्दे को जितनी अच्छी तरह से संसद के अंदर विपक्षी दल उठा सकते थे वो संसद के अंदर उठाने की जगह संसद के बाहर कर रहे हैं।
देश में क्या एक अड़ानी ही मुद्दा बचा है ? विपक्ष चाहे तो सैकड़ों ऐसे मुद्दे हैं जिनको संसद में उठा कर सरकार को अच्छे तरीके से घेर सकता है।
महंगाई, बेरोज़गारी, चीन और अन्य पड़ोसी देशों के साथ संबंध, इन सबके अलावा और भी बहुत से मुद्दे ऐसे हैं जिनको उठा के विपक्ष जनता का भरोसा पा सकता है। पर विपक्ष तो सरकार को एक तरह से वाक ओवर दे रहा है।
मोदी सरकार सब बिल बिना किसी विशेष विरोध के पास करवा रही है जिसका नुक़सान जनता को होगा।
उन बिलों के अच्छे बुरे का होने का पूर्व आँकलन भी नहीं हो पा रहा है। ये एक अच्छे लोकतंत्र की निशानी नहीं है।
अच्छा होता कि राहुल गांधी जो पूरा भारत घूम के आये हैं, वो भारत के आम लोगों की असली समस्याओं को संसद में उठाते और एक गंभीर नेता की छवि प्राप्त करते।
भारत जोड़ो यात्रा से मिले आत्मविश्वास से भरे दिख रहे राहुल गांधी के पास शायद ये सबसे अच्छा मौक़ा है ।
और जनता भी ये देखना चाहती है कि उनके अंदर कुछ बदलाव आया है या नहीं।
राहुल गांधी के पास भाजपा आईटी सेल द्वारा बनाई गई खुद की पप्पू वाली छवि से बाहर निकलने और अपने कैडर में जोश भरने का इस से अच्छा मौक़ा नहीं ही हो सकता कि वो संसद में सरकार को विभिन्न मुद्दों पर घेरने का प्रयास करें ।
पर बजट भाषण के समय की उनकी तस्वीर कुछ और ही कह रही है।
नरेंद्र मोदी की सरकार अपने आप को विक्टिम प्ले कर के इस संसद सत्र में संसद ना चलने का सारा दोष विपक्ष पर डाल के निकल जायेगी और नुक़सान सिर्फ़ और सिर्फ़ विपक्ष का ही नहीं होगा बल्कि देश की उस जनता का भी होगा जो मोदी सरकार से उन बहुत सी बातों का जवाब चाहती है जिनका जवाब उसे मोदी के मन की बात कार्यक्रम में नहीं मिलता।
तमाम हंगामे के बाद संसद चली और राहुल गांधी बोले भी।लेकिन मुख्य रूप से अदानी पर बोले और अन्य मुद्दे नहीं उतनी गंभीरता से नहीं उठाए जितनी गंभीरता से एक विपक्षी नेता द्वारा उठाने की उम्मीद थी।
अग्निवीर मुद्दे को कम समय दिया, पुरानी पेंशन का जिक्र नहीं किया। ट्रेनों में जनरल डब्बे कम करने, जल शक्ति मिशन के भ्रष्टाचार , जीएसटी के फर्जी छापे , अग्निवीर योजना के पहले की एयरफोर्स और सेना की भर्तियों में कॉल लेटर पाये लड़कों की समस्या, रेलवे ग्रुप डी परीक्षा, पेपर लीक , पेट्रोल की महंगाई, आटे की महंगाई, कालेजों में प्रवेश की समस्या,गुजरात में ड्रग्स का मिलना, एयरपोर्ट पर अव्यवस्था , जहरीली शराब से मौतें, अतिक्रमण बहुत से ऐसे जनता से जुड़े सीधे मुद्दे थे जिन पर राहुल बात करके जनता का मन जीत सकते थे, पर उन्होंने अदानी को चुना।
और नरेंद्र मोदी ने फिर से अपनी करिश्माई छवि दिखाते हुए एक यादगार भाषण देकर जनता को जीत लिया। जिसमें ऐसे फिल्मी डायलॉग थे कि:-
मोदी पर ये भरोसा अखबार की सुर्खियों से पैदा नहीं हुआ है ।”
“मोदी पर ये भरोसा टीवी पर चमचमाते चेहरों से पैदा नहीं हुआ है।”
ये स्टेप डाउन करके सिक्स मारा गया था।
दादा स्टाइल में।
ये एक अपनी लोकप्रियता के चरम पर बैठे राजनेता की गर्जना थी।
कोई विकल्प नहीं था इस आत्मविश्वास का।
मुद्दे की बात ये है कि संसद में बोलने का मौका मिलने के बाद भी अगर विपक्षी नेता ढंग के मुद्दे नहीं उठाएंगे तो मोदी फ्रंट फुट पर आ कर छक्के मारेंगे भी ।
“ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं।
वो अब चल चुके हैं, वो अब आ रहे हैं।”
ये शायरी के रुप में ट्रोलिंग ही थी मोदी द्वारा, लेकिन संसद में थी इसलिये मजेदार भी रही और यादगार भी हो गई।
लोकसभा में बोलते बोलते ट्रोलिंग का मजा ही और था।
लेकिन अंत में इतना ही कहूंगा कि संसद में उठाये गये मुद्दों और संसद में बोली गई बात का विशेष महत्व होता है।
अटल बिहारी, चंद्रशेखर और सुषमा स्वराज को आज भी लोग उनके संसद में दिये गये भाषणों के कारण ही याद रखते हैं ।
संसद में बोलने का अपना महत्व है।
सत्या चौधरी
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