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राहुल दुबे

जरा सोचिए, जिस घर में, गांव में आपने अपने का हर एक हिस्सा जिया हो, बच्चे बनकर जिद करने से लेकर बड़े होकर अपने घर की जिम्मेदारियों को समझा हों, खुशियां मनाई हो, दुःख को जाते देखा हो , वहां से आपको सिर्फ इसलिए भागना पड़े क्योंकि अब जगह रहने लायक नहीं रही।एक पल के लिए यदि आप घर छोड़कर जाते हैं तो उसकी याद आपको असहज करने लगती हैं आप उतावले रहते है कब घर की ओर लौट चलें।लेकिन यदि आपको अपना घर गांव सिर्फ इसलिए छोड़ना पड़ जाए क्योंकि बाहर से कुछ पल के लिए आये लोगों को सुख सुविधा देने के लिए जिम्मेदार लोगों ने आपके अपने शहर गांव के प्रकृति से ही खेल कर दिया।

जोशीमठ से आ रही तस्वीरें बहुत भयानक हैं, दर्दनाक हैं, जोशीमठ शंकराचार्य की धरती है। हिंदुओं के लिए जोशी मठ एक अपनी विशेषमहत्ता रखने वाला शहर है।लेकिन अब लोगों को वहां से हटाया जा रहा है क्योंकि वहां अब रहना स्वयं के जान को खतरे में डालना है और और जान का मोह तो सभी को होता ही है ।

जोशीमठ की बर्बादी का एकमात्र कारण भौतिकतावाद के नशे में चूर मानव हैं।हमने अपनी सुख सुविधाओं के लिए प्रकृति तक को ताक पे रखा हैं।शायद जोशीमठ उतना विकसित नहीं होता ,शायद ये त्रासदी लोग नहीं झेलते ।लेकिन समय समय जगने वाला हिंदुत्व भी एक कारण है जोशी मठ की मौत का ।हम हिंदुओं ने अपने ही धार्मिक क्षेत्र को पर्यटन क्षेत्र में बदल दिया है, ताकि जब वहां घूमने जाए तो हमें कोई दिक्कत न हो।सरकार को ये लालच था कि यात्रा सुगम होगी तो लोग आएंगे और हमारा राजकोष बढ़ेगा इसलिए पहाड़ों को मारा गया, जलाशयों की हत्या की गई ।

हमने ये मान लिया कि तीर्थयात्रा और पिकनिक एक ही हैं मैंने अपने गांव के बुजुर्ग को कहते सुना था जब भगवान बुलाएंगे तो उनके दर पर हम भी जाएंगे लेकिन अंधाधुंध विकास ने तीर्थयात्रा को भी पिकनिक के समान कर दिया ।जहां जब मन करे तब व्यक्ति किसी भी अवस्था में पहुंच जाता हैं।

तीर्थयात्रा का मतलब होता हैं कि हम कुछ पल के लिए भौतिकतावाद को भुलाकर कुछ पल के लिए प्रभु के ही हो जायें, जहां सब कुछ सामान्य न हो और हम अपने मन को बाजारू हो चुकी दुनिया से कुछ पल के लिए विरक्त रख सकें

निर्मल मन से हम प्रभु की आराधना कर सकें ।

और शायद इसलिए ही हमारे पूर्वज साधु संतों ने दुर्गम स्थलों को अपनी आराधना का केंद्र बनाया लेकिन हम लोगों ने उनका अनुसरण करने के बजाय अपने तीर्थों को ही सबसे बड़ा बाजारू स्थल बना दिया।

आज केदारनाथ की यात्रा करना एक चीज हो गई है जो आपका सोशल स्टेटस तय करता है। बॉलीवुड के भद्दे संगीत के साथ केदारनाथ में बन रहे वीडियो इस बात के सबसे बड़े उदाहरण हैं कि हमने अपने ही तीर्थक्षेत्र का क्या हाल कर दिया है।

अपने गांव या लोकल मन्दिर के साल में एक बार भी न दर्शन करने वाला युवा केदारनाथ पर्यटन की लालसा रखता है।मेरा मानना है कि तीर्थस्थल धार्मिक क्रियाओं के लिए ही हैं। लोगों का तर्क ये रहता है कि पर्यटन क्षेत्र होने के कारण उस स्थल का विकास होता है, लेकिन अब लोगो को समझ आ रहा होगा कि विकास के परिणाम क्या क्या हो सकते हैं।

समेद शिखर जी के मामले पर जैन समुदाय का विरोध इस बात का उदाहरण है कि एक तीर्थस्थल की पवित्रता उसके तीर्थस्थल बने रहने में ही है, ना कि थोक के भाव विकास के नाम पर उसकी मौलिकता और पवित्रता की हत्या ही कर देने में ।

आदि शंकराचार्य की धरती जोशीमठ के भविष्य का पता किसी को नहीं है।मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट को सरकारों ने राजकोष बढ़ाने के लिये सालों तक दबाये रखा। परिणाम अब सामने हैं। न जाने ऐसे कितने स्थान हैं जो अंधाधुंध विकास के कारण अपने मूलस्वरूप को खो चुके हैं और जब प्रकृति अपना बदला लेगी तो वहां के मूलनिवासी ही परेशानी में होंगे ।

हम छोटी कक्षाओं में ही सतत विकास के बारे में खूब पढ़ते लिखते हैं लेकिन उसका धरातल पर प्रयोग शून्य ही है।

उम्मीद है कि अब सरकार और जनता दोनों जोशीमठ की भूल से सीखेंगी और यह तय करेगी कि कोई अगला जोशीमठ न बन पाये ।कोई अगला परिवार अपने मूल शहर या गांव से केवल पर्यटकों की सुख सुविधा के कारण अपने घर मकान को बरबाद होता न देखे।

राहुल दुबे

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