प्रस्तुति -अंकित चौधरी
जयपुर के छात्रावास – छद्म पहचान और आपसी संघर्ष
प्रस्तुति -अंकित चौधरी
जयपुर ! जयपुर राजस्थान की राजधानी और शिक्षा का एक जाना माना केंद्र है।यहाँ राज्य के लगभग सभी ज़िलों से छात्र आते हैं ।कुछ कॉलेज शिक्षा ग्रहण करने, कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने।कॉलेज शिक्षा के लिए मुख्यतः राजस्थान विश्वविद्यालय और उसके कैंपस कॉलेज हैं।बाक़ी अनगिनत प्राइवेट कॉलेज और इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट्स और ऐसे ही प्रतियोगी परीक्षा के लिए हर गली में कोचिंग सेंटर हैं।
राजस्थान विश्वविद्यालय के 4 संघटक कॉलेज हैं।महाराजा कॉलेज, महारानी कॉलेज, राजस्थान आर्ट्स कॉलेज और राजस्थान कॉमर्स कॉलेज ।सभी कॉलेजों के सरकारी छात्रावास हैं।
महाराजा का गोखले, महारानी का एनी बिसेंट और मदर टेरेसा, आर्ट्स का विवेकानंद और कॉमर्स का महाराणा प्रताप छात्रावास है।
इन हॉस्टल्स की कट ऑफ़ लिस्ट,कॉलेज के कट ऑफ़ मार्क्स से 2-4 प्रतिशत अंक ज़्यादा ही रहती है।यानि कुल मिलाकर स्कूल की दुनिया के प्रतिभाशाली छात्र ही इन हॉस्टल्स में पहुँचते हैं।यहाँ मुख्यतः सभी जाति-क़ौम के छात्र रहते हैं और मैंने इनसे ज़्यादा धर्मनिरपेक्ष, जाति-निरपेक्ष स्थान भारत में दूसरा नहीं देखा।किसी को नहीं पड़ी आपकी जाति धर्म की, बस आपकी हरकतें मिलनी चाहिए और अगले दिन वही आपका रूम पार्टनर हो जायेगा।
फिर आते हैं समाज के छात्रावास, जिनके लिए कट ऑफ़ लिस्ट नहीं लगती बल्कि जाति प्रमाण पत्र लगता है।यहाँ एक ही जाति के सभी प्रकार के छात्र मिलते हैं। पढ़ाकू, लड़ाकू, छात्र-नेता आदि।राजपूत, जाट, मीणा, ब्राह्मण, यादव, गुर्जर आदि समाज के छात्रावास यहाँ हैं। इनमें जाति, राजस्थान की राजनीति की तरह प्रमुख भूमिका में है।
अब चूँकि महिलाओं में तो टेस्टोस्टेरोन का अभाव होता है, इसलिए उनमें बिना किसी बात मारपीट करने की चुल्ल होती नहीं है।लेकिन लड़कों में इस उम्र में टेस्टोस्टेरोन ख़तरे के निशान के ऊपर ही रहता है।दूसरा वो इतने बड़े शहर में नये होते हैं।ना ही स्कूल वाली कोई बंदिशें, ना ही बात बात पर घरवालों की रोक-टोक, ना ही ख़ुद के अच्छे-बुरे की समझ।कुल मिलाकर सोडियम की डली पर लिपटा ख़ाली पन्ना, बस पानी से संपर्क होने का ही इंतज़ार और संपर्क होते ही ….धड़ाम।
सरकारी और समाज, सभी हॉस्टल्स में नई पीढ़ी के लिए पानी बनते है सीनियर्स।सीनियर्स पर दायित्व होता है, नये सिपाही तैयार करने का।रैगिंग फ़िल्मों जैसी नहीं होती इधर, यहाँ इसे मीटिंग का नाम दिया जाता है,जिसमें बस जूनियर्स को अपना परिचय देना होता है और अगर उन्हें कुछ समस्या हो तो वो बतानी होती है।बेसिकली यह सच में ही मीटिंग ही होती है।सीनियर्स पहले दिन हॉस्टल के कुछ रूल्स बताते हैं जो जूनियर्स को फॉलो करने होते हैं लेकिन वो सुनकर कम सीखते हैं बजाय इसके जब कोई सुपर सीनियर् हॉस्टल में आते हैं तो वो सीनियर्स के उनके प्रति व्यवहार को नोटिस करते हैं और उसकी फूहड़ नक़ल उतारने की कोशिश करते हैं और मीटिंग्स में इन्ही बातों पर चर्चा होती है कि उपरोक्त जूनियर ने दिन में फूहड़ नक़ल करते समय क्या क्या गलती की और उसे क्या सुधार करना है। तो कुल मिलाकर अनुशासन में भी यह हॉस्टल देश में, देश की सेनाओं के बाद दूसरे स्थान पर हैं, सीनियर के आदेश की अवहेलना का तो सवाल ही नहीं उठता। सब सही चलता रहता है तभी एंट्री होती पानी जैसे सीनियर्स की।
ये जूनियर्स को बताते हैं कि कैसे अपने हॉस्टल का पूरे जयपुर में दबदबा है, कैसे आपकों सिटी बसों में किराया नहीं देना पड़ता, कैसे आपको आस पास के क्षेत्र में खाने पीने की वस्तुओं का आधा पैसा देना पड़ता है। और भी बहुत कुछ वैसे ही आपको इस परंपरा को आगे ऐसे ही बनाए रखना है, और इसके लिये आपको अन्य हॉस्टल वालों से, बस के मालिकों से, होटल-ढाबें के मालिकों से लड़ाइयाँ भी लड़नी पड़ेंगी।
और यह मीटिंग्स उस समय होती थी जब इंसान दिमाग़ की बजाय दिल से सोचते हैं….रात को 11 बजे के बाद। इतिहास गवाह है कि आशिक़ भी अपने दिल की बात अपनी प्रेमिकाओं तक पहुँचाने के लिए यही समय चुना करते थे।इस समय इंसानी दिमाग़ सोच विचार नहीं कर सकता।
मीटिंग्स में ही अगले दिन के लिए एक आध टास्क दिया जाता है कि आपको किसी भी हॉस्टल के लड़के को पकड़ना है जो अपने आस पास के क्षेत्र में विचरण कर रहा है उसे पीटना है, अपने हॉस्टल के ज़िंदाबाद के नारे लगवाने है, और दो-चार एक साथ मिल गए तो उनसें अपने हॉस्टल की साफ़ सफ़ाई भी करवा सकते हो। सिटी बस में किसी दूसरे हॉस्टल के छात्र को पकड़ना है जो बिना किराया दिए यात्रा कर रहा है, उसको दो-चार चाँटे लगाने है और किराया भी दिलवाना है अर्थात् न्याय के देवता की भूमिका निभानी है।
अब 100 किशोर टेस्टोस्टेरोन से लबालब लड़के जब ऐसा टास्क पूरा करने निकलें तो अब वे साक्षात् भगवान के कहने पर भी ना रुकें।एक टास्क से शुरू हुई यह समस्या कब नाक का सवाल बन जाती है, बच्चों को पता ही नहीं लगता। IPC 307 के केस तक यहाँ आम बात बन जाते हैं और साथ ही गर्व का एक विषय भी।बच्चे इसे एक तमग़े के रूप में पहनते हैं।
फिर हर दिन की यही दिनचर्या. मारपीट, झूठें केस,क्रॉस- केस,जमानत और पुलिस थाने के चक्कर लगाते लगाते कब कॉलेज और पढ़ाई आउट ऑफ़ रूटीन हो जाती है पता ही नहीं लगता।यहाँ आते सब छात्र बनकर ही हैं लेकिन अंत तक छात्र कुछेक ही रह पाते है।
जब तक पता लगता है थाने के FIR रजिस्टर में आधों का नाम लिखा जा चुका होता है।कब तीन साल इस छद्म दबदबे को बनाए रखने के चक्कर में निकल जाते हैं पता ही नहीं लगता।कई 3 साल में निकल जाते हैं और कई कभी नहीं निकल पाते।उसके बाद चलता है माफ़ीनामों का दौर….इन हॉस्टल्स में पढ़े बहुत सारे ऐसे लोग मिल जाएँगे जो सरकारी नौकरी में चयनित होने के बावजूद भी अपने आपराधिक बैकग्राउंड के चलते ज्वाइन नहीं कर पाये।केस निपटाने के लिए हॉस्टल का वो शेर, जिस भी व्यक्ति में, जहां भी उम्मीद की कुछ किरण दिखायी पड़ती हैं वहीं सीधा उसके पैरों में पसर जाता है।
मूलतः यहाँ समस्या किसी छात्र से नहीं बल्कि हॉस्टल के नाम से है।उसकी व्यक्तिगत पहचान हॉस्टल तक ही सीमित है, उसके बाहर वह संपूर्ण हॉस्टल है।किसी एक छात्र का पीटा जाना इस बात का द्योतक है कि जहां से वो संबंध रखता है वो पूरा हॉस्टल ही पीट गया फिर बदला और यही प्रक्रिया अनवरत चल रही है, अरसों से। यहाँ कोई हॉस्टल किसी का दोस्त नहीं है, सब आपस में दुश्मन है।चिंगारी किसने जलाई थी, पता नहीं पर लाखों प्रतिभायें इसमें अब तक फुंक चुकी हैं।यह एक अकाट्य तथ्य है।कई छात्रों ने जान तक गँवाई हैं, इस पहचान को बचाने के लिए और भावी पीढ़ियों ने अपने दिल में संजोकर भी रखा है उनके बलिदान को हॉस्टल के हर छोटे-बड़े कार्यक्रम में उनको सबसे पहले याद किया जाता है।लेकिन उनके घरवालों के नज़रिये से देखा जाए तो उनके बेटे ने बलिदान एक उस छद्म पहचान के लिए किया है जिनका परिवारजनों की नज़र में तो कोई वजूद ही नहीं है।
इन हॉस्टल्स का एक दूसरा पक्ष भी है।प्रत्येक वर्ष में किसी एक दिन यहाँ उत्सव मनाया जाता है, जिसमें इन हॉस्टल्स से निकली अप्रतिम प्रतिभायें भी शिरकत करती हैं और इनमें इतने बड़े बड़े ओहदों पर बैठे लोग भी एक छात्र बनकर आते हैं कि आँखों को विश्वास तक नहीं होता कि उक्त पद पर आसीन व्यक्ति मेरे गले में हाथ डाले खड़ा है और अपने हॉस्टल के दिनों के क़िस्से सुना रहा है।
लेकिन एक पक्ष यह भी है कि उत्सव की उस रात इकट्ठे होने वाले 400-500 छात्र ही अब तक यहाँ से नहीं गुजरे,ये तो यहाँ से गुजर चुकें छात्रों का एक प्रतिशत भी नहीं है. बाक़ी कहाँ गये?वो क्यों नहीं आते?
दरअसल वो कतराते हैं यहाँ फिर आने में।इन हॉस्टल्स ने सभी को दिया ही नहीं है, बहुतों से बहुत कुछ छीना भी है ,और जिनसे छीना है वो यहाँ मुड़ कर वापस नहीं आते।उनको यह अपने सपनों का क़ब्रगाह प्रतीत होता है और कब्रगाह में अपने पैरों पर चलकर कोई नहीं जाता।
अंकित चौधरी
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शानदार लिखा है,आपको इस लेख को पेपर पर प्रिंट लेकर उसको कॉलेज और विश्वविद्यालय कैम्पस में वितरित किया जाना चाहिए।