हिन्दुओं के कत्लेआम के बीच बांग्लादेश का भारत दौरा
अर्शदीप महाजन
एक देश,जो पहले इस्लाम के नाम पर पाक ज़मीन ढूँढता हुआ अपनी जड़ों से कटा,फिर उस पाक ज़मीन से बुरी तरह दुत्कारे जाने के बाद अपनी बंगाली अस्मिता की याद में बांग्लादेश बना।फिर उस बंगाली शरीर में पनाह लिया हुआ अरबी जिन्न ताक़तवर होता गया और बंगाली अस्मिता को डकार कर उसी के नाम से इस्लाम का झण्डा लहराने में एक बार फिर कामयाब हो गया।इस लगभग अस्सी साल के घटनाक्रम में, घटना चाहे जो भी हो जो बार बार मरा,काटा गया, जिसके जिस्म को नोचा गया, वह हिन्दू ही रहा।
1946 के डायरेक्ट एक्शन डे और नोआखली के दंगों से शुरू हुआ हिंदुओं का बलात्कार, क़त्लेआम और धर्म परिवर्तन ना तो 1947 के पाकिस्तान बनने पर बन्द हुआ और ना ही 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद।
अगस्त 5 – 2024 को छात्र आंदोलन की आड़ में इस्लामी कट्टरपन्थ जो कि असली इस्लाम है, द्वारा किये गए सत्ता परिवर्तन के बाद हिन्दुओं का क़त्लेआम बड़े पैमाने पर हुआ जो पहले ही छोटे पैमाने पर लगातार हो ही रहा था।इसने भारत में रह रहे हिन्दुओं को हिला कर जगाने का असफल प्रयास किया,जो कुछ दिन बांग्लादेश के भारत क्रिकेट दौरे का विरोध कर बांग्लादेश की पाकिस्तान में क्रिकेट विजय की ख़ुशियाँ मनाने में व्यस्त हो गये।
अभी भी कुछ लोग हैं जो 18 सितंबर से शुरू होने वाले बांग्लादेश के भारत क्रिकेट दौरे का विरोध कर रहे हैं। कुछ बेसब्री से भारतीय टीम को क्रिकेट खेलते और जीतते देखना चाहते हैं और कुछ को इन सब से कोई सरोकार नहीं।इन में एक ऐसा निम्न कोटि का वर्ग ऐसा भी है जो तीन देशों में काले मज़हबी आतंकवाद के द्वारा शून्य कर दिये गये हिंदुओं को राजनीति की सफ़ेद चादर ओढ़ कर खेल और राजनीति को अलग रखने की बात करता है।
सच तो यह है कि ओलंपिक और फ़ीफ़ा समेत दुनिया भर की खेल संस्थाओं ने रुस-यूक्रेन युद्ध के बाद रुस पर प्रतिबन्ध लगा दिये।सच तो यह है कि एशियन गेम्स में फ़िलिस्तीन तो खेलता है लेकिन इज़राइल को नहीं बुलाया जाता।सच तो यह है कि अज़रबैजान और आर्मेनिया की टीमों को एक पूल में नहीं रखा जाता और तो और पाकिस्तान आर्मेनिया को एक देश ही नहीं मानता।सच तो यह है कि नस्लभेद के चलते आईसीसी ने दक्षिण अफ़्रीका क्रिकेट पर 20 साल के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया था।
तो फिर महिलाओं के खेलने पर प्रतिबन्ध,हिन्दू नरसंहार और आतंकवाद के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लग सकते?अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को छोड़िये, क्या हमने कभी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन तीनों देशों से क्या इन बातों के लिए आधिकारिक आपत्ति जताई है? क्या भारत सरकार की विदेश नीति में अपने इन तीनों पड़ोसी देशों में लगातार होने वाले हिन्दू विरोधी मज़हबी आतंकवाद के विरुद्ध आवाज़ उठाना शामिल है भी या नहीं?अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश की तो छोड़िये ,1947 से अब तक चार युद्ध थोपने वाले और 1980 के बाद से लगातार आतंकवाद को अपने देश में पोषित कर भारत में आतंकवादी हमले करने वाले पाकिस्तान पर भी खेल को लेकर क्या अतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार ने आधिकारिक विरोध रखा है कभी?
हम तो पाकिस्तान से तब भी क्रिकेट खेल रहे थे जब उसने हम पर कारगिल का युद्ध थोप रखा था।हम उनसे तब भी खेल रहे थे जब उन्होंने हमारा हवाई जहाज़ हाईजैक किया था और तब भी जब संसद पर हमला हुआ था।
हमारा दुर्भाग्य है कि हमारी भावनायें भारत सरकार की भावनायें नहीं हैं और यह मान लेना कि बीसीसीआई बिना सरकार की मर्ज़ी के कुछ भी करता है,हमारी मूर्खता।सरकार चाहती है कि भारत पाकिस्तान से भी खेले, बांग्लादेश से भी और अफ़ग़ानिस्तान से भी। सरकार चाहती है कि भारतीय टीम हिन्दू नरसंहार पर कभी कुछ ना बोले लेकिन ब्लैक लाइव्स मैटर पर बाजू पर काली पट्टी बांध कर घुटने ज़रूर टेके।सरकार अपनी विदेश नीति के चलते यह सब करने को बाध्य हो सकती है लेकिन जब इज़राइल, आर्मेनिया, रुस, साउथ अफ़्रीका के विरुद्ध प्रतिबन्ध लग सकते हैं तो मज़हबी नरसंहार और आतंकवाद का प्रयोग कर ध्वस्त किए गए मानव अधिकारों के लिये इन देशों पर प्रतिबन्ध के लिए भारत सरकार ने आज तक अपनी रीढ़ में एक भी मनका नहीं जोड़ा,यह हमारे दुर्भाग्य के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता।
कतर जैसा देश एक राजनीतिक प्रवक्ता के टीवी में इस्लाम पर कुछ कहने पर हमें आँखें दिखा देता है,चंद एक चर्चों में चोरी की खबर पर वैटिकन हमें आँखें दिखा देता है और हम 80 सालों से अन्धे गूँगे और बहरे बनकर विश्व में कभी हिन्दुओं के नरसंहार की बात नहीं करते तो आज जब बांग्लादेश भारत में क्रिकेट दौरे पर आ रहा है तो हम किस मुँह से यह दौरा रद्द करने की बात कर सकते हैं?
हमने जब कभी अपनी आपत्ति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रखी ही नहीं, और उन आपत्तियों को लेकर अपनी स्पष्ट खेल नीति कभी किसी से कही ही नहीं तो हम एक दम से पहले से निर्धारित खेल दौरे को रद्द करके हंसी के पात्र नहीं बन सकते।दौरा रद्द करने के बाद भी बिना रीढ़ वाली हमारी नीतियों के लिए इसे न्यायसंगत साबित करना जितना कठिन होगा,उतना ही आसान होगा सभी इस्लामिक देशों का एक साथ आकर बांग्लादेश को पीड़ित साबित करना।
हमें यह खेल होने देना चाहिए।
इसलिये नहीं कि यह कोई आपसी सौहार्द बढ़ायेगा। इसलिये नहीं कि हिंदुओं का नरसंहार कोई राजनीति है और खेल को राजनीति से अलग रखना चाहिये।बल्कि सिर्फ़ इसलिये कि आत्मसमान के साथ आतंकवाद और मज़हबी नरसंहार पर अपनी स्पष्ट खेल नीति विश्व के सामने रखना तो दूर की बात, हम इस बारे में बात करने के लिए भी ना तो पिछले 75 सालों में सुदृढ़ हुए, ना आज हैं और ना ही होते हुए दिखाई देते हैं।
अर्शदीप महाजन
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