हास्य और व्यंग्य में अंतर
आपका -विपुल
चलिये आज हिंदी दिवस पर हिंदी में ही कुछ बात करते हैं।बात हिंदी साहित्य की दो विधाओं की जिन्हें अक्सर एक ही सांस में बोल दिया जाता है -हास्य व्यंग्य।
दरअसल हास्य और व्यंग्य दो अलग अलग विधायें हैं जिनको एक साथ एक ही चीज मान लेने की भूल की जाती है पर दरअसल हास्य और व्यंग्य दोनों एक दूसरे से बहुत ही ज्यादा अंतर रखने वाली चीजें हैं।
हास्य और व्यंग्य में उतना ही अंतर है सावन और फागुन में।
या यूं कहें जनवरी और जून में।
हास्य विभिन्न प्रकार की चेष्टाओं से,विभिन्न प्रकार के साधनों और संसाधनों का प्रयोग करके, विभिन्न प्रकार की काल्पनिक और वास्तविक स्थितियों का उपयोग करके किसी को हंसाने की ऐसी विधा है जिसमें रचनाकार का मूल उद्देश्य केवल हंसाना होता है।किसी चीज के लिये सोचने पर मजबूर करने का,किसी को उसकी कमी,
लाचारगी बताने का,देश व्यक्ति जाति या समाज के बारे में कोई संदेश देने का,कोई सवाल उठाने का मंतव्य नहीं होता।
हास्य की विधा का उपयोग विशुद्ध मनोरंजन के लिये होता है।
आपको दिमाग लगाने की जरूरत नहीं,बस आप खुल के हंस लिये तो हास्य विधा के रचनाकार ने अपना लक्ष्य पूरा किया।वो सफल हो गया।
व्यंग्य की विधा हास्य से अलग है।इसमें पाठक को अपनी ओर खींचने के लिये हास्य का पुट तो जरूर दिया जाता है,पर व्यंग्यकार का उद्देश्य आपको हंसाना कभी नहीं होता।
एक व्यंग्यकार देश दुनिया की समस्याओं की ओर आपका ध्यान आकर्षित करता है,आपको सोचने पर मजबूर करता है।आपकी समाज और व्यवस्था के खिलाफ कुछ न कर पाने की बेबसी आपको याद दिलाता है।
एक व्यंग्यकार शब्दों की चाशनी में लपेट कर आपको इस तरह से हौले हौले जूते मारता है कि आप कुछ बोल भी न सकें और आह भर के रह जायें अपनी बेबसी पर।
वैसे व्यंग्य लिखना हास्य के मुकाबले आसान है क्योंकि व्यंग्य हमेशा वास्तविक स्थितियों का विद्रूपात्मक चित्रण होता है जिसमें कल्पना की उड़ान कम भरनी पड़ती है।
ज्यादातर सब कुछ पहले से ही लेखक और पाठक जानते हैं, बस एक व्यंग्यकार उन चीजों को शब्दों की चाशनी में लपेट कर पेश कर देता है।व्यंग्यकार को ये मतलब भी नहीं होता कि उसे पाठक को हंसाना ही हंसाना है। वो खुद को एक बुद्धिजीवी मानता है जिसके मन में ये अकसर ये होता है कि अगर पाठक मेरा व्यंग्य नहीं समझ पाया तो उसकी विद्वता की कमी है।
हास्य लिखना व्यंग्य लिखने के मुकाबले बनिस्बत कहीं बहुत ज्यादा कठिन है।कुछ तो कारण है ही कि किसी भी भाषा के साहित्य में व्यंग्यकार आपको थोक के भाव मिलेंगे।व्यंग्य रचनायें कुंतलों के भाव मिलेंगी।
पर किसी भी भाषा का साहित्य उठा के देख लो,आपको हास्य रचनायें बेहद कम मिलेंगी और अच्छी हास्य रचनायें तो उंगलियों पर गिनने लायक।एक व्यंग्यकार हास्य को हमेशा पाठक को अपनी रचना की तरफ आकृष्ट करने के लिये इस्तेमाल करता है ,ज्यादातर रचना के प्रारंभ में।
पर एक अच्छा हास्य रचनाकार व्यंग्य का इस्तेमाल कभी नहीं करता,क्योंकि उसे पढ़ने वाले को हंसाना है, ज्ञान देना नहीं!उसे नीचा दिखाना नहीं!उसका खून जलाना नहीं!
व्यंग्य दरअसल एक ताने की तरह की चीज है,एक तंज की तरह की चीज है और हास्य केवल मजे की चीज।
कुछ इस तरह समझिये कि हास्य आपके कपड़े एकांत में उतारता है ,आपको सुख देता है।
पर व्यंग्य आपके कपड़े बीच समाज में उतारता है।नंगा कर देता है।आपको कहीं न कहीं नीचा दिखा के ही जाता है।
हालांकि मैंने ऊपर कहा कि हास्य लिखना कठिन है,पर इसका ये मतलब नहीं कि व्यंग्य लिखना बच्चों का खेल है।
अच्छे व्यंग्यकार बनने के लिये हास्य बोध होना भी बहुत जरूरी है।एक अच्छे व्यंग्यकार को पता होता है कि हास्य की मात्रा कब कहां और कितनी प्रयोग करनी है।जिनको पता होता है, वो बहुत अव्वल दर्जे के व्यंग्यकार बनते हैं,जिनको ये नहीं पता होता,वो जल्द ही लोगों को चुभने लगते हैं। लोग उन्हें नापसंद करने लगते हैं।
कई बार व्यंग्यकार भूल जाते हैं कि वो लेखक हैं,रचनाकार हैं। उनका प्राथमिक उद्देश्य पढ़ने वाले की,पाठक की पढ़ने की भूख को संतुष्ट करना है।उनका प्राथमिक उद्देश्य समाज सुधार नहीं है।
वैसे हिंदी में श्रीलाल शुक्ल और हरिशंकर परसाई,शरद जोशी जैसे नामी व्यंग्यकार हुये हैं।मुद्राराक्षस भी व्यंग्य लिखते थे। केपी सक्सेना हास्य से व्यंग्य की ओर मुड़ जाते थे।
काका हाथरसी को कुछ लोग उच्च स्तरीय साहित्यकारों में नहीं गिनते पर उनकी कविताओं में वाकई हास्य ज्यादा है,व्यंग्य कम ही है
मुझे हिंदी में कोई बहुत अच्छा हास्य उपन्यास नाटक या कहानी नहीं मिली,उर्दू में मैंने शौकत थानवी को पढ़ा है और कह सकता हूं कि उनका हास्य शायद बहुत ही ज्यादा अच्छा था।
हालांकि हिंदी में व्यंग्य अच्छे लिखे हैं।श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी पढ़ियेगा।पूरा का पूरा उपन्यास हिंदी व्यंग्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
हास्य और व्यंग्य का अंतर थोड़ा और समझते हैं।
राजू श्रीवास्तव का नाम आपने सुना होगा।बेहद अच्छे हास्य कलाकार थे।सामान्य जीवन की जीवन के आसपास की चीजों की आपको याद दिलाकर आपको हंसा देते थे।यूपी की बारात,दुल्हन का रोना, दूल्हे का अपने साले से डर कर कहना – “आपकी बहन को अपनी बहन समझूंगा!”
ये ऐसी चीजें थीं जिसमें किसी को नीचा दिखाये बगैर वो आपको अपनी कल्पनाशक्ति से हंसा देते थे।वो हास्य था।शिष्ट हास्य।राजू अच्छा लिखते थे।
वहीं आज की तारीख में कोई स्टैंड अप कॉमेडियन अगर टोल टैक्स या जीएसटी पर आपके कष्ट से संबंधित कोई ऐसी बात करता है कि आप हंस पड़ें तो ये व्यंग्य ही है क्योंकि ये दोनों चीजें वास्तविकता में मध्यम वर्ग के व्यक्ति को दुख पहुंचा रही हैं और आप भले यहां हंस लें लेकिन एक टीस आपके दिल में उठ जायेगी आपकी मजबूरी को लेकर।ये कल्पनाशक्ति की बात नहीं है।ये यथार्थ और सत्य है।
हास्य की विधा ज्यादातर कल्पनाशक्ति पर आधारित होती है,व्यंग्य की विधा पूरी तरह से यथार्थ की सच्चाइयों पर।
वैसे मैं अपनी बात यहां खत्म करना चाहूंगा कि हास्य और व्यंग्य दोनों बिलकुल अलग विधायें हैं।दोनों में बहुत अंतर है।
उतना ही जितना कल्पना और सच्चाई में है।जितना सुख और दुःख में है।
आपका – विपुल
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अच्छा विश्लेष्ण ।वैसे व्यंग्य ही प्रभावी दिखता है सामान्य साहित्य में ।हास्य केवल काव्य तक सीमित है ।