दो रचनायें
1- सँभल जा गुड़िया।
2- सावन की शाम।
प्रस्तुति- जय मंडा
सँभल जा गुड़िया
तुझे घूरती हैं तुझे नोचने को
बाज़ की तरह झपटती हैं आँखें।
दिखा के प्यार के झूठे सतरंगी सपने
शिकारी बन बिछाते जाल अपने।
सम्भल गुड़िया इनके चंगुल से
देकर प्यार के ये वादे….
मसल देंगे तुझे अपने पंजों से।
ये कुकर्मी नहीं प्यार के भूखे।।
सावन की शाम
हवा की नमी
और वो तुम्हारी उलझी लट जो खेलती है मेरे हृदय पर…
आज फिर उन यादों ने मुझे घेर लिया है।
जितना निकलना चाहता हूँ,
और जकड़ता चला जाता हूँ.
जानता हूँ मेरा घरौंदा टूटा भी सावन में ही था।
एक शाम जब आसमान पर काले बादल घिर आये थे,
बिजलियाँ कड़कड़ा रहीं थीं ,मूसलाधार बारिश की तरह घर में तुम्हारा प्रवेश हुआ।
मेरे कमरे तक आते आते तुम एक बाढ़ का रूप ले चुकी थीं।
और तुमने जब ये कहा ये रिश्ता मैं और नही ढो सकती जय….
हटात बादल फटा !
और मैं बह चला सागर मैं…
डूब गया मेरा गांव जो तुम्हारे लिए ही बसाया था मैंने।
आज फिर उन्ही यादों से घिर आया हूँ।
आज फिर आसमान पर बादल हैं ।
बिजलियाँ आज भी कड़कड़ा रही हैं।
बादल आज फिर फटेगा।
आज फिर कुछ कहर आयेगा।
और बहा ले जायेगा तुम्हारी यादों को
और ढ़हे हुए छप्पर ,
टूटे हुए घरौंदे ,
उजड़े हुए कस्बे को फिर से बसाऊंगा,
तुम्हारे नाम पर,
मेघा !
हाँ तुम मेघा !…….
जय मंडा
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अति सुंदर अभिव्यक्ति 🙏🏻