वामपन्थ की गिरफ़्त में जाट राजनीति
सत्या चौधरी
जाट समुदाय
जाट – एक ऐसी कौम जो देश सेवा की बात हो या खेती किसानी की बात! हर जगह आगे ही खड़ी नज़र आती है।
एक ऐसी क़ौम जो समय के साथ साथ अपने आप को बदलती गई,अपनी पुरानी कुरीतियों को छोड़ कर सहजता के साथ आगे बढ़ने का साहस जितना जाट क़ौम ने दिखाया उतना शायद किसी और कौम ने नहीं।
विकास की अंधी दौड़ में सहभागी तो बनना ही था जाटों को भी, लेकिन फिर भी जाट अपने नियम क़ायदे और अपना सहयोगी भाव सहेजे रहे और समय के साथ बढ़ते रहे।
जाट क़ौम को हमेशा से सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाला माना गया।और ये हो भी क्यों ना? जाट कभी भी सत्ता का पिछलग्गू नहीं रहा है। जाट हमेशा अपने दम पर आगे बढ़ता है। भले ही कुछ लोग जाट कौम को दकियानूसी सोच वाला मानते हों,पर जाट ही वो कौम है जिसने अपनी बेटियों को दुरूह माने जाने वाले खेलों में सबसे पहले उतारा, अखाड़े में उतारा, कुश्ती में उतारा।आज जितनी बेटियां जाट कौम की भारतीय खेल जगत में हैं शायद ही किसी और भारतीय बिरादरी की होंगी।
जाट समुदाय की एक ख़ास बात ये रही है कि उनकी सोच सदैव ही राष्ट्र हित की रही है और सब को साथ लेकर चलने वाली रही है।
जाट समुदाय ने उन सामाजिक बदलावों का सदैव ही स्वागत किया है जो सर्वहित में रहे हों।चाहे वो सर छोटूराम जी के नेतृत्व में हो या सीधी सपाट राजनीति करने वाले ताऊ देवीलाल जी हों या फिर चौधरी चरण सिंह जी।
चाहे आम किसान के हित की बात उठाने वाले आदरणीय महेंद्र सिंह जी टिकैत रहे हों या फिर कुम्भा राम आर्य जी हों। एक चीज थी जो इन सब बड़े जाट नेताओं में एक सी रही थी, वो ये कि ये सब अपने आप को जाट नेता कहलाना पसंद नहीं करते थे, न ही इनको कोई जाट नेता कहता था अपितु ये सब किसान क़ौम के नेता कहलाते थे एवम आम जनमानस भी इन्हें जाट नेता नहीं बल्कि किसान नेता की नज़रों से देखता था। हर जाति बिरादरी के किसान इन्हें वाकई अपना नेता मानते भी थे।
सर छोटूराम, देवीलाल, टिकैत आदि किसान नेता कांग्रेस से दूर या कांग्रेस के विरोध की राजनीति ही करते थे ,वो भी उस समय जब कांग्रेस के विरोध में जाकर राजनीति में जगह बनाना ही बहुत टेढ़ी खीर माना जाता था। दूसरी बड़ी बात ये कि जाट समुदाय कभी वामपन्थ के क़रीब नहीं रहा।
जाट समुदाय का भारतीय राजनीति में हमेशा ही एक अलग वजूद रहा था और जाट समुदाय के नेताओं को लगभग हर जाति वर्ग का खेतिहर किसान अपना नेता मानता भी रहा। छोटूराम जी केवल जाट नेता ही नहीं थे।
लेकिन समय के साथ साथ जाट समुदाय एक चीज जो नहीं सीख पाया वो था कांग्रेस के पतन के बाद बदलती भारतीय राजनैतिक परिस्थितियों में बदलते राजनैतिक दावपेंच और इसका फ़ायदा उठाया राजनीति के कुटिल खिलाड़ियों ने।
वामपन्थ के जाल में जाट युवा
जैसा कि मैंने बताया की जाट समुदाय के लोगों का स्वभाव थोड़ा उग्र रहा है पर साथ ही जाट समुदाय हमेशा से प्रगतिशील भी रहा है।
सामाजिक बदलाव की आवाज सदा ही समाज के अंदर से आती है।जब समाज बदला तो उस हिसाब से खेती बाड़ी करने वाली जाट कौम को लगा कि सिर्फ़ खेती बाड़ी ही नहीं समुदाय के लिये पढ़ाई भी जरूरी है और पढ़ाई के साथ साथ व्यवसाय और नौकरी भी ज़रूरी है ,तब जाट समाज शिक्षा की ओर भी चला।
हालांकि जाट विरोधी लोगों की साज़िश थी जाट समुदाय को अनपढ़ रख जाट समाज को नीचा दिखाने की फिर भी इस समाज से सर छोटू राम जैसे लोग निकले। शिक्षा की अहमियत सर छोटूराम ने भी समझी थी।जाट समुदाय शिक्षा की तरफ़ अग्रसर भी हुआ, पर तब तक खेती लगभग मुनाफ़े का सौदा बन चुका था।
इधर हर जाट परिवार के पास अच्छी ख़ासी ज़मीन थी ही तो घर के बड़े बुजुर्ग चाहते ही नहीं थे कि उनका बच्चा गांव की खेती छोड़ कर गांव से बाहर निकले ।
अक्सर जाट समुदाय के बड़े बुजुर्ग अपने घर के युवाओं से बोलते थे कि बाहर जाने की क्या जरूरत है? अपनी खेती बहुत है, अच्छा कमा लेगा खेती से ही।
इसी सोच के कारण जाट समुदाय के बहुत ज़्यादा लोग अपने गांव से निकल कर बाहर व्यापार या नौकरी आदि करने गये ही नहीं।इसका नतीजा ये हुआ कि जाट समाज शिक्षित तो हुआ पर सेना और सशस्त्र बलों के अलावा दूसरी नौकरियों में जाट समाज को बहुत ज्यादा हिस्सेदारी नहीं मिल पायी।अगर इस बात पर यक़ीन नहीं है तो कृपया देखें कि सेना और सशस्त्र बलों के अलावा कितने जाट बुजुर्ग सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त दिखते हैं जिनकी उम्र सत्तर साल से अधिक हो?
समय के साथ जाट समाज ने शिक्षा का महत्व भी समझा और घर से बाहर भी निकले।जाट समुदाय के शिक्षा को महत्व देने का परिणाम आपको अपने आस पास के सरकारी और ग़ैर सरकारी दोनों जगह के उच्च पदों पर आसीन जाट समुदाय के युवा और अधेड़ लोगों से मिल जायेगा।
पर इसका एक उल्टा असर भी जाट समाज पर हुआ कि जो जाट युवा सीधे सरल हृदय, सच्चे मन का और थोड़ा विद्रोही प्रकृति का था, उसको कॉलेज और स्कूल की राजनीति में वामपंथियों ने घेर लिया।
वामपन्थ के छात्र संगठन SFI को आप गौर से देखें तो इस संगठन के सदस्य अधिकतर जाट युवा ही मिलेंगे और उनका ब्रेन वाश भी यहीं से शुरू हो गया।
जैसा कि वामपन्थ की प्रकृति रही है कि वामपंथ व्यवस्था का विरोधी रहा है और वामपंथ को मानने वाले आपको दबा कुचला बता के सत्ता के ख़िलाफ़ क्रांति के लिए उकसा देते हैं। वही इन्होंने जाट समुदाय के सरल और विद्रोही प्रकृति के युवकों के साथ किया। जाट समुदाय के रूप में हाशिए पर चल रहे भारतीय वामपंथ को एक नया हथियार मिल गया। वामपंथी जाट युवाओं की ऊर्जा का अपने लाभ के लिये इस्तेमाल करने लगे ।
नतीजा ये हुआ कि वामपंथ ने एक सरल निश्छल और स्वभाव से सहयोगी क़ौम को क्रूर और उद्दंड जाति के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया।
वामपन्थ का काम ही यही है कि किसी भी समाज को उसकी जड़ों से दूर किया जाये।
वामपंथियों ने जाट युवाओं को बताया कि तुम तो हिंदू हो ही नहीं।तुम तो अलग हो।जबकि सत्य तो यही है कि सनातन धर्म ही जाट समुदाय का मुख्य धर्म रहा है।एक तरह से कहा जाये तो सनातन धर्म और जाट एक दूसरे के पूरक रहे हैं।
बिना सनातन के जाट की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
तो धर्म के प्रति विमुख करने का काम ये वामपंथी लोग करते ही रहे हैं।जैसा कि मैंने बोला,जाट समुदाय का व्यक्ति दिमाग़ से ज़्यादा दिल से सोचता है ,उसका फ़ायदा आज के समय तथाकथित वामपंथ की राजनीति करने वाले लोग उठा ही रहे हैं और जाट युवा उसका एक आसान लक्ष्य बन रहा है।
यहां एक मूल सवाल ये भी पैदा होता है कि क्या जाट समाज हमेशा से एकला चलो की नीति पर चलने वाला समुदाय ही रहा है?
यदि ध्यान से देखें तो जाट समाज के मूल में सबको साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति हमेशा से रही है। हमेशा से से जाट समुदाय इंसान ही नहीं ,पशु पक्षी सबको अपने साथ लेकर चलता है।जाट समुदाय इसलिये जाना जाता था कि वो अपने से ज़्यादा अपने साथ वालों का ध्यान रखता रहा है।
आप जितने भी बड़े बड़े जाट नेताओं को देखोगे तो उन्होंने ख़ुद के समुदाय के लिये ही नहीं बल्कि पूरे किसान समुदाय के लिये लड़ाइयां लड़ी हैं। हर जाति वर्ग के आम किसानों का उन्हें सहयोग मिलता भी था।
चाहे वो सारी जातियों के किसान तबके के लाभ के लिये किए गये छोटू राम जी के कार्य हों या ताऊ देवी लाल जी और चौधरी चरण सिंह जी के कार्य रहे हों। इन सब किसान नेताओं में सबको साथ लेकर चलने का माद्दा था,तभी वो वहाँ तक पहुँचे जहां बड़े बड़े राजनेता न पहुंच पाये।
जब तक बड़े बड़े जाट नेताओ में सर्व समाज को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति रही तो तब तक वे सफल रहे भी हैं।
जब जब जाट नेताओं ने सर्व समाज के किसान का नेता बनने की जगह सिर्फ जाट नेता बनने को वरीयता दी, सत्ता उनसे दूर होती गई। चाहे वो परसराम मदेरणा जी रहे हों जो राजस्थान के मुख्यमंत्री की कुर्सी के बिलकुल पास पहुँच कर भी दूर ही रह गये और गहलोत साहब बाज़ी मार गये हों।उसके बाद राजस्थान के अंदर कोई बड़ी जाट लीडरशिप पनप ही नहीं पायी।
चाहे वो ओला साहब हों या कोई और, सब के सब जाट नेता हांशिये पर चलते चले गये।हालाँकि हरियाणा में पहले चौटाला साहब फिर हुड्डा साहब मुख्यमंत्री रहे।इस बीच में भजनलाल बिश्नोई भी हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे और उनको पहलीं बार किस तरह से मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गई थी वो इतिहास आप अपने दादा परदादा से पूंछना,सब समझ आ जायेगा।
जाट आरक्षण और किसान आंदोलन
जाट आरक्षण के नाम पर हरियाणा में एक बहुत बड़ा आंदोलन हुआ। वो भी जब हरियाणा में भाजपा की सरकार आई,उसके तुरंत बाद ये आंदोलन हुआ।एक ग़ैर जाट मुख्यमंत्री बन गया और वो जाटों का अहित करेगा ये जाटों के बीच दुष्प्रचार किया गया।वो जाट आरक्षण आंदोलन जिस तरह से किया गया वो जाट के मूल स्वभाव के ही विपरीत था।
जाट समुदाय का स्वाभाविक स्वभाव सबको साथ लेकर चलने का रहा है, पर उस आंदोलन ने जाट समाज और बाकी समुदायों के बीच में एक बहुत बड़ी खाई खींच दी।
जो जाट समाज सबको साथ लेकर चलने वाला था, वो एक दम से अलग क्यों हो गया?ये विचारणीय प्रश्न है।
इसका जवाब भी जाट समाज को ही ढूँढना पड़ेगा।
जाट समुदाय और किसान आंदोलन
किसान आंदोलन जो किसान के नाम पर शुरू हुआ वो एक दम से सिर्फ़ जाट का आंदोलन कैसे बन गया ? ये भी विचारणीय है। केंद्र सरकार ने वो किसान सम्बन्धी क़ानून वापस ले लिये जो एक आम किसान के लिए संजीवनी का काम कर सकते थे। इस किसान आंदोलन के जाट आंदोलन में परिवर्तित हो जाने से नुक़सान ये हुआ कि जाट समुदाय की छवि ग़ैर सुधारवादी और रूढ़िवादी होने की छवि आम भारतीय जनमानस में बन गई है।
यहां पर एक बात और कर लें कि क्या जाट समाज की भारतीय राजनीति में भागीदारी कम हुई है ? वामपंथी जाट समाज को ये बता रहे हैं कि जाट समाज की राजनीति में और सत्ता में भागीदारी कम हुई है।जबकि ये सत्य नहीं है।
ध्यान से देखोगे तो पाओगे कि बीस से ज़्यादा सांसद जाट समुदाय से हैं।देश के उपराष्ट्रपति के पद पर एक जाट समुदाय का व्यक्ति है।
केंद्र में दो दो जाट समुदाय के मंत्री हैं और हरियाणा में उप मुख्यमंत्री जाट समुदाय से ही है।हरियाणा ,राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष भी जाट समाज से रहे हैं या मौजूद हैं।एक या दो राज्यो में राज्यपाल भी जाट समुदाय से हैं और जाट बहुल राज्यो में अच्छी ख़ासी संख्या में जाट समुदाय के विधायक भी हैं।इस तरह से देखें तो जाट समुदाय की भारतीय राजनीति में भागीदारी कम होने का सवाल ही नहीं है।
फिर ये कौन लोग हैं जो “जाटों की सत्ता में भागीदारी नहीं है!” बोल बोल के जाट समुदाय को भड़का रहे हैं?
राजस्थान और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल के निराशा जनक प्रदर्शन और राजस्थान में हनुमान बैनीवाल की पार्टी के विधान सभा चुनाव में बहुत ही निराशाजनक प्रदर्शन को लोग जाट राजनीति से जोड़ रहे हैं,जबकि ये सत्य नहीं है।कारण ये कि कोई भी राजनैतिक दल सिर्फ़ एक जाति के दम पर सत्ता की राजनीति में आगे बढ़ ही नहीं सकती।
जब तक कि उनको दूसरी अन्य जातियों या समाज का साथ नहीं मिलेगा, हनुमान बैनीवाल और जयंत चौधरी जैसे केवल जाटों की राजनीति करने वाले राजनेता आगे नहीं बढ़ सकते। इसका एक बड़ा कारण इनके समर्थक भी रहे हैं जिन्होंने इन नेताओ की छवि मात्र एक जाति के नेता के तौर पर बना दी है और दूसरा समाज इन से दूर हो गया।
यहां पर आप पूर्व के मुलायम और वर्तमान के अखिलेश को भी देखें। यादवों की राजनीति करने के बावजूद उन्होंने कई समुदायों को साध रखा है।
निष्कर्ष
जाट समाज के युवा को अपनी मूल पहचान जो सबके साथ मिल कर चलने की रही है, पर लौटना होगा।
वामपन्थ और नक़ली जाट हित दिखाने वाले राजनैतिक दलों से दूर रहना होगा।
साथ ही यदि कोई जाट समुदाय का नेता भ्रष्ट, चरित्रहीन या स्त्रियों के प्रति अपराधी रहा है तो केवल इसलिये कि वो जाट है, इस लिये आंख मूंद कर उसका समर्थन करने से बचना होगा, भले ही वो किसी भी दल का हो।
सत्या चौधरी
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Informative and good analysis bro
Really Jat going in leftist lap.
Jaat always religious
Very Apt and good article catching the very essence of Jat politics and aspirations
Perfect Analysis 👍🏻
“जाट” शब्द भगवान शिव की “जटा” से निकला हुआ शब्द है, तो जाट ही सनातन का ध्वज वाहक है. पहले पंजाब के जाटों को सनातन से अलग किया गया, अब हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के जाटों पर नज़र है. आशा है कि जाट अपनी राष्ट्रवादी एवं सनातनी भूमिका में वापिस आएँ.
सत्या भाई द्वारा बहुत बढ़िया विश्लेषण.
Sir, an apt article. I, myself have witnessed the hatred Jaat youngsters are having towards Sanatani. Surprisingly, they have soft corner for Lord shiva bit carries lot more hatred towards Lord Ram! I never understand that. Youngsters are in conundrum, they like Lord shiva and relate him to hookah & ors activities. They think they are closer to Sikhism than to sanatani. They really need serious guidance from their elders until it gets too late for another budding generation.
an eye opener, specially for those who are not familiar to jaat history & their contribution towards nation
Precise Analysis
Very much informative content
Satya did a good job
सच है कि जाट युवा को आज एक प्रपंच के तहत वामपंथी यूनियनिस्ट अपने मकड़जाल में ले रहे हैं और सोशल मीडिया पर जाट समाज के नाम से हैंडल बनाकर जाटों की छवि सामाजिक राजनैतिक तौर पर घोर जातिवाद की बना रहे हैं पर ये सिर्फ सोशल मीडिया और शहरी अर्धशहरी परिवेश तक ही सत्य है ।कस्बाई और ठेठ ग्रामीण परिवेश में जाट आज भी सामाजिक सहयोग और भाईचारे के सूत्रों में बंधा ही मिलता है ।
बेहतरीन आलेख। जाट राजनीति का बहुत बारीकी से विश्लेषण किया गया है। मैं समझता हूं कि यह एक साहसिक आलेख है। वामपंथ की गिरफ्त में आए युवा यह मानने को भी तैयार नहीं होंगे कि वे वामपंथ की गिरफ्त में हैं। एक अप्रासंगिक हो चुकी धारा में बहकर मुख्य धारा से अलग-थलग हो रहे युवाओं के लिए यह आलेख एक दिशा हो सकता है।
धन्यवाद सर।
बिलकुल अच्छा आलेख लिखा सत्या चौधरी ने,
लेकिन किसान आंदोलन और करेंट का उप राष्ट्रपति से सम्बन्धित मुद्दा इनकी भाजपा समर्थक मानसिकता का प्रदर्शन है, बेशक काफी हद तक आलेख अच्छा है लेकिन इसके माध्यम से जाटों को भाजपा की ओर मोड़ने का असफल प्रयास किया गया है
Aise lagta h jaise BJP k agent ne lekh likha h🤪
Majak kar Raha hu m par ye Satya bhi h Jo Maine bola
वामपंथ की गिरफ्त में किसी खास मकसद, विकास या विरोध की वजह से नही है।
हमारे कहावत भी है “जाट बिना किसो गांम है” यानी की जिस गांव में जाट नही है उस गाव में भाईचारा व प्रेम बहुत कम है।
जाट कौम सेंटी होती है दुसरे के लिये उधारी शौख से लेते है लेकिन आजकल फैशन बदल गया।
बङे , वामपंथ की मोहमाया के जाल में ऐसा फसते जा रहे और निम्न जातीय यूनीटी के चक्कर और नाक का सवाल समझ साथ हो लेते है।
अब इससे बाहर निकल पाना मुश्किल है।
बिलकुल सटीक विश्लेषण किया है। पिछले कुछ समय से जाटों की एक ऐसी छवि पेश की जा रही है जो उनकी मूल प्रवृत्ति से पूरी तरह विपरीत है। जाट कोई बदमाश या गुंडागर्द कौम नहीं थी लेकिन आज इसकी छवि कुछ इसी प्रकार की उभर रही है। खास तौर पर अगर मैं राजस्थान के जाटों की बात करू तो इनका स्वभाव अत्यंत शांत और रसूख वाला रहा है, एक ऐसा जाट जो धार्मिक भी है, प्रगतिशील भी है, शिक्षा की और अग्रसर भी है और उसे अपनी हैसियत की पहचान भी है। लेकिन ना जाने वो आज क्यों वामपंथ की और अग्रसर है। वास्तविकता से परे एक वर्चुअल दुनिया में जा रहा है।
एकदम सुलझे हुए ढंग से बहुत ही अच्छा लेख है
अच्छा आलेख है… समाजिक जागृति हेतु ऐसे अनेक आलेख भी कम पड़ जाएंगे क्योंकि वांमपथी ब्रेनवाश का खेल काफी लम्बे समय से चल रहा है। सत्या जी को मौलिक विचारों के लिए साधुवाद।
बहुत सटीक और सत्य को उजागर करता विश्लेषण ।
बहुत से लोग शायद इस से सहमत नहीं होंगे लेकिन लेखक ने बारीकी से और तथ्यो के साथ इस विषय पर सटीक आकलन किया है ।
लेखन का अच्छा प्रयास,
लेकिन तीन कृषि बिल और किसान आंदोलन को वापस अच्छे ढंग से पढ़ने की आवश्यकता है, कृषि बिल किसी भी तरीके से किसानों के हितैषी नही थे, केंद्र सरकार ने जो तीनों कृषि बिल वापस लिए थे वह किसी भी सूरत में किसानों के लिए संजीवनी साबित नहीं होने वाले थे, अगर आप अच्छे से उनका अध्ययन करोगे तो पाओगे कि किसानों के लिए नुकसानदायक ही थे, और उसी के लिए किसान आंदोलन किया जिसको बेवजह आप जाट आंदोलन का टैग दे रहे हो, किसान आंदोलन को किसी ने विशेष रूप से जाट आंदोलन का टैग नही दिया था,
जाट हमेशा से भारत की संस्कृति और हिंदू धर्म के पक्ष में रहा है लेकिन किसी राजनीतिक दल के फर्जी हिंदुत्व और पाखंड के पक्ष में नहीं, समाज शिक्षा से आगे बढ़ेगा किसी राजनीतिक दल के फर्जी राष्ट्रवाद के चक्कर में आने से नहीं
Bhout sahi likha hai satye bhai shab..ajj ki hakikt ko ugager kiya hai aapne.