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विपुल
तो बात कर लें आज हिंदी फिल्मों में हिंदी की!
माफ करिये बॉलीवुड फिल्मों में हिंदी की।
देखो !आप भी जानते हो और मैं भी कि मेरी वक़त हैसियत कीमत और औकात उन बड़े बड़े हिंदी साहित्य के नामों जितनी नहीं है जो हिंदी दिवस पर हिंदी की दुर्दशा पर विलाप करके शेष 364 दिन इंग्लिश में आलाप छेड़ते हैं ।लेकिन जज़्बात तो हैं।
इसलिये बात कर रहा हूँ।और उस भाषा में जो मेरे लिये सहज है।मैं ये लिखना नहीं पसन्द करता कि आइये हिंदी चलचित्र जगत में देवनागरी भाषा की दुर्दशा पर एक सकारात्मक विमर्श का शुभारंभ करते हैं इसके बजाय मैं ये कहने में ज़्यादा सहज हूँ “आओ यार !ये हिंदी फिल्मों में हिंदी की हत्या पर बात करें।”
ये मेरा स्टाईल है।
आपको ठीक लगे तो ठीक वरना हीथ स्ट्रीक।
खैर
मेरे एक दुश्मन ने ही कहा था, कोई भी बड़ी चीज़ अचानक खत्म नहीं होती धीमे धीमे खत्म होती है।धीमे धीमे ।समझे ।
संस्कृत एक बहुत समृद्ध भाषा है।वैज्ञानिक तौर पर भी।
कितने लोग बोलते हैं ?अगर वैदिक और पौराणिक धार्मिक किताबें हटा दें तो शायद कोई इन्हें बोले पढें भी न।
निश्चित तौर पर दैनिक जीवन में धार्मिक कार्यों के अलावा संस्कृत का कोई उपयोग नहीं।
बुरा लगा ?
लगे।
और ये मत कहना कि संस्कृत कभी संपर्क भाषा नहीं रही।कुलीनों की भाषा रही ,पुरोहितों की भाषा रही,सम्पर्क भाषा नहीं रही।
किसे बेवकूफ बना रहे हो भाई ?
संस्कृत जितनी इतनी ज्यादा सम्पूर्ण भाषा कभी सम्पर्क भाषा (lingua franca) नहीं रही ?तो बनी ही क्यों ?
पाली सहित सारी प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएँ इसी संस्कृत से ही निकली हैं ,संस्कृत भाषा की ही लिपि इस्तेमाल की ,फिर भी संस्कृत कभी लिंगुआ फ़्रांका नहीं रही।क्या गज़ब लॉजिक है।
संस्कृत कैसे खत्म हुई ?तब जब ये राजदरबार की भाषा बन गई।तब जब ये केवल धर्म की भाषा बन गई ,तब जब संस्कृत सरल से कठिन ,कठिन से कठिनतम और कठिनतम से दुरूह होती चली गई।
और आम जनता से कटती चली गई।
पाली और अन्य कई प्राकृत भाषाएँ जनसाधारण की मान ली गईं।संस्कृत मूर्छित होती चली गई।
संस्कृत भाषा मृत नहीं है तो जीवित भी नहीं है ।
जीवित क्यों नहीं है ?
कोई भी जीवित भाषा दूसरी भाषाओं के चालू शब्द अपना लेती है।
व्याकरण और लिपि अपना ही रख के ।
जैसे अंग्रेजी में गुरु, मंत्र, योग ,कर्म शब्द बहुत सामान्य हो चुके हैं।बस आ की मात्रालगा के कर्म ,कर्मा हो जाता है। योग ,योगा।
जैसे बहुतों को पता नहीं होगा कि हिंदी में प्रयोग होने वाले बाल्टी कमरा और मेज शब्द पुर्तगाली हैं।
चूँकि हिंदी एक जाग्रत भाषा है।इसलिये हिंदी फिल्मों की हिंदी अगर कुछ उर्दू या पंजाबी या इंग्लिश शब्द अपना लेती है तो हर्ज नहीं।
हर्ज होना शुरू होता है तब ,जब हिंदी फिल्मों के गाने पूरे पूरे पंजाबी और उर्दू में बनने लगते हैं।बगैर हिंदी शब्दों के ।
काला चश्मा गाने का एक शब्द मुझे समझ नहीं आया।
ए दिल है मुश्किल के गाने नहीं समझ आये।
हाई हील गाने का एक शब्द नहीं समझ आया ।पूरे पंजाबी गाने थे।
हर्ज होना शुरू होता है तब ,जब
हिंदी फिल्मों और सीरियल के सम्वादों में
आई लव यू
ओह माय गॉड,
प्लीज् गिव मी ए ब्रेक,
हाऊ डेयर यू।
आर यू स्टुपिड ।
जैसे वाक्य आपको बहुत सामान्य लगने लगते हैं।
और एक चीज़ होती है मौलिकता।
मौलिक विचार ,मौलिक लोग ,मौलिक सोच।
ये मौलिकता नदारद है वर्तमान हिंदी फिल्मों से।
क्यों ?
अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा हिंदी पट्टी से आते थे।
सलीम खान इंदौर में रहे थे।किशोर कुमार मध्यप्रदेश के खण्डवा से आते थे और गुलशन कुमार ने दिल्ली में नकली कैसेट बेच रखे थे।तमाम लोग थे ऐसे जो हिंदी पट्टी के थे।
आप सोनाक्षी सिन्हा,सलमान खान और श्रद्धा कपूर को मराठी मान सकते हैं।हिंदी पट्टी का नहीं।
इन्होंने हिंदी पट्टी को कभी नज़दीक से देखा ही नहीं।
ये क्या समझ पाएंगे ?
मैं अपने उन चार दोस्तों के साथ मिलकर तमिलनाडु पर एक फ़िल्म बनाऊँ जो कभी लखनऊ और आगरा छोड़कर कहीं गये न हों तो जो कचरा बनेगा ,वो उसी कचरे के बराबर होगा जो शुभ मंगल दोबारा सावधान या थप्पड़ जैसी फिल्में होती हैं।
मतलब आप समझ ही रहे होंगे।
हम हिंदीभाषी खुद अपनी अहमियत नहीं जानते।
भोजपुरी फिल्मों को अश्लीलता की श्रेणी में कह दिया गया, हमने मान भी लिया।
क्या भोजपुरी फिल्में “सरकाय लेओ खटिया” के उस गाने के फिल्मांकन से ज़्यादा अश्लील हैं जिसमें गोविंदा और करिश्मा कपूर कामसूत्र के आसन करते दिखते हैं।
अनिल कपूर “खड़ा है खड़ा है ,खोल खोल खोल “गाना गाते हैं ।हम हंस देते हैं।
“चोली के पीछे क्या है” गाना क्लासिक बना दिया गया।
बॉलीवुड फिल्मकारों ने हिंदी फिल्मों को बनाकर हिंदी की सेवा उतनी नहीं की जितना नुकसान किया।
आल्ट बालाजी प्रोडक्शन हाउस अश्लील फिल्में और वेबसेरीज बनाता है और ये उन एकता कपूर का है जो टीवी पर पारिवारिक सीरियल बनाने को मशहूर हैं।
गौर करिये किसी भी बॉलीवुड फ़िल्म में ” पाँय लागी बाबा” कहने वाला चरित्र कॉमेडियन होगा।
“पैरी पैना बाउजी “कहने वाला चरित्र गम्भीर।
वजह ?
वजह ये कि शुरुआत से ही बॉलीवुड का हिंदी सिनेमा जगत पंजाबियों के प्रभाव में रहा है।पृथ्वीराज कपूर से यश चोपड़ा तक।।
विनोद खन्ना से राजेश खन्ना तक।
धर्मेंद्र से जितेंद्र और एकता कपूर तक और बी आर चोपड़ा से करण जौहर तक।
बॉलीवुड हिंदी की हत्या पर आमादा है।
मेरे विचार से जो फिल्मकार वास्तविक हिंदी फिल्में बनाने के लिये आतुर हैं ,उन्हें मुंबई छोड़ नोयडा आना चाहिए।वरना बॉलीवुड हिंदी की हत्या की शुरुआत हिंदी फिल्मों से कर देगा।कर क्या देगा , कर रहा है।
फूलों के रंग से ,दिल की कलम से जैसे नए गाने बन रहे अभी क्या ?
फिल्मों का नाम ही नो एंट्री या नो प्रोब्लम हो रहे। हिंदी में नाम तक नहीं रखे जा रहे हिंदी फिल्मों के|
योगीजी ने अच्छी शुरुआत की है।
हालांकि तीस साल पहले भी ऐसी ही शुरुआत हुई थी नोएडा में लेकिन तब बेल मुंडेर नहीं चढ़ पाई थी।
अबकी शायद बात बन जाये।
दूसरा मुझे उन हिंदी साहित्यकारों से घनघोर आपत्ति है जो हिंदी को पूरी तरह से संस्कृत बना देना चाहते हैं।इसे भी मृत कर देंगे ये लोग, जब हिंदी को लोगों के लिये दुरूह बना देंगे।100 प्रतिशत संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी हिंदी की हत्या की कोशिश ही है।कृपया इसे जीवित भाषा रहने दें।
मैं किसी भी दिन “टूटा है गाबा का घमंड ,जीत गई है टीम इंडिया “
को ज़्यादा दिल के करीब पाऊंगा ,बनिस्बत
“भारतीय क्रिकेट टीम ने ऑस्ट्रेलिया के दुर्भेद्य गढ़ गाबा में विजय प्राप्त कर आस्ट्रेलियाई टीम के दर्प का मर्दन कर दिया।”
विपुल
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