विजयंत खत्री
आप लोग भी बड़े परेशान होंगे कि आखिर भारत की वोक और लिबरल वर्ग की हृदय प्रिय ऑनलाइन वेबसाइट द वायर और अमेरिकन कंपनी मेटा के बीच कैसा विवाद हुआ है। देखिए मैं किसी बैंगलोर के आईटी विशेषज्ञ की तरह तकनीकी ज्ञान ना दे करके सीधे सीधे ये मज़ेदार कहानी समझाने का प्रयास करता हूँ।
तो हुआ यूँ कि द वायर ने एक सनसनीखेज खुलासा करने का दावा किया कि अमेरिकन कंपनी मेटा ने बीजेपी के आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय को इतनी पावर दी हुई है कि वो इंस्टाग्राम की किसी भी पोस्ट या अकाउंट को जब चाहे जैसे चाहे डिलीट कर सकता है।आपको हंसी आई ?
इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने उदाहरण दिया कि किसी बिहार के व्यक्ति की इंस्टाग्राम की पोस्ट को डिलीट कर दिया गया है। ये खबर सुन कर तथाकथित राइट विंग जो वास्तव मे है ही नहीं, वाले लोग बड़े आश्चर्यचकित हुए।
दरअसल वो खुद नहीं जानते थे कि जिस अमित मालवीय को वो राइट विंग का आशुतोष समझे बैठे थे ,उसे ये वायर वाले लोग नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की
जोड़ी से भी ज्यादा ताकतवर बता रहे थे। दोबारा हंसी आई?
तो राइट विंग के लोगों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। क्यूंकि उन्हें पता है कि सबसे ज्यादा ये सोशल मीडिया कंपनी तथाकथित राइट विंग के पीछे ही पड़ी रहती हैं। लेफ्ट विंग वालों को भी इसलिये यकीन नहीं हुआ क्यूंकि वो जानते हैं कि अमित मालवीय की क्या सोचनीय, दयनीय स्थिति है भाजपा में।
पर उन्हें अपने मुखपत्र पोर्टल द वायर के उत्साह वर्धन के लिए ऐसे प्रतिक्रिया तो देनी ही थी जैसे गांव की निठल्ली और चुगलखोर औरतें आपस में ज्ञात विषय पर भी आश्चर्य की प्रतिक्रिया देती हैं।
कहानी शुरू होती है तब,
जब द वायर के इस आरोप पर प्रतिक्रिया दी मेटा ने। जिस मेटा कर्मचारी एंडी स्टोन के लीक ईमेल के आधार पर द वायर ने ये पूरी कहानी बनाई थी, उसी एंडी स्टोन ने सामने आकर कहा कि उसने कभी ऐसा ईमेल भेजा ही नहीं है।
मेटा के चीफ इन्फॉर्मेशन ऑफिसर रोसन ने भी कहा कि जिस एक्स चेक प्रोग्राम का एक्सेस अमित मालवीय को दे देने की बात द वायर कर रहा है, उस प्रोग्राम का उद्देश्य किसी पोस्ट या अकाउंट को डिलीट करने का नहीं है।
साथ ही द वायर की रिपोर्ट में जो यूआरएल दिखाया गया है वो वास्तव मे है ही नहीं।
मेटा ने ये भी कहा कि जिस ईमेल एड्रेस से वायर को ईमेल भेजा गया उस ईमेल एड्रेस को कोई मेटा कर्मचारी प्रयोग ही नहीं करता।
बहुत से अमेरिकन लोगों के हवाले से बताया गया कि जिस तरह की भाषा का प्रयोग उस ईमेल में किया गया है ,उस तरह की भाषा का प्रयोग अमेरिकी लोग करते ही नहीं हैं ,बल्कि भारतीय लोग करते हैं।
बहुत से लेफ्ट विंग के लोगों, कुछ टेक कंपनी के लोगों ने भी कहा कि जिन सबूतों के आधार पर द वायर ने ये स्टोरी प्रकाशित की है वो फेक है।
यहाँ तक कि खोजी पत्रकार सोफि झांग, जिन्होंने 2021 में मेटा को एक्सपोज किया था कि मेटा राजनीतिक पार्टियों के साथ मिलकर इन्टरनेट पर एक तरफा व्यवहार करता है, उन्होंने भी माना कि द वायर की कहानी मनगढ़ंत है।
पर वायर ने बेशर्मी के साथ कहा वो ये सब नहीं मानते हैं।मेटा झूठा है।
जब द वायर की अमित मालवीय वाली ये कहानी फर्जी और मनगढ़ंत साबित हुई तो द वायर वाले एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने लगे ,और उनका हर झूठ पहले झूठ की तुलना में और ज्यादा बचकाना लगने लगा।
कुल मिलकर असली बात ये रही कि वायर को किसी ने फर्जी ईमेल भेज के कोई स्टोरी दे दी जिसे सच मानकर उसे द वायर ने प्रकाशित कर दिया।
कुल मिलाकर द वायर ,निधि राजदान बन गया।
पर द वायर निधि राजदान से बहुत आगे चला गया था क्यूंकि वो अपनी तथाकथित खोजी पत्रकारिता की भद्द पिटता देख सहन नहीं कर पा रहे थे।
द वायर की प्रतिक्रियाएं धीरे धीरे इतनी हास्यास्पद होती चली गईं थीं कि वामपंथी एजेंडा चलाने वाली फैक्ट चेकिंग संस्था ऑल्ट न्यूज तक को फैक्ट चेक करके द वायर से कहना पड़ गया कि भाई बस करो !
और कितना जलील होना है तुम लोगों को?
यहा तक कि बरखा दत्त जैसी अपनी विश्वसनीयता खो चुकी पत्रकार को भी कहना पड़ गया कि यहाँ द वायर ही गलत था। आकर पटेल भी हाथ जोड़ गए कि यार द वायर ! रहने दो !
इस घटना से पता चलता है कि लेफ्ट इको सिस्टम कितना बैचन है मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए। लेकिन आपको क्या लगता है वायर ने ऐसा क्यूँ किया?
क्यूंकि उन्हें अपने मंदबुद्धि समर्थकों को कैसे भी चमत्कृत करके हर महीने लाखों का चंदा लेना होता है। इस तरह की सनसनीखेज़ न्यूज से उनके मंदबुद्धि समर्थक बड़े खुश होते हैं कि द वायर ने कैसा ज़बर्दस्त एक्सपोज किया है कि अभूतपूर्व सुख की प्राप्ति हो गई।
पर ये लोग भूल जाते हैं कि इनकी ऐसी ही बेवकूफाना हरक़तों की वजह से मोदी सरकार को हानि के बजाय कुछ लाभ ही मिल जाता है।
कुछ दक्षिणपंथी लोग जो मोदी सरकार से नाराज भी हो जायें तो ये लोग पक्का करते हैं कि नाराजगी के बाद भी ये नाराज दक्षिणपंथी भी नरेंद्र मोदी का साथ ना छोड़ पायें।
बाकी रही बात खोजी पत्रकारिता की, तो अगर लोग ऐसी रूम में बैठकर कंप्यूटर पर ऑनलाइन फैक्ट चेकिंग करने के नाम पे द वायर और ऑल्ट न्यूज़ जैसी फर्जी वेबसाइट को लाखों रुपये हर महीने देते हैं तो हमारी वेबसाइट exxcricketer.com कौन सी बुरी है ?
यकीन मानिये अगर मीम फैक्ट चेक करना , फैक्ट चेक करना है, और फर्जी ईमेल के आधार पर एक्सपोज के नाम पर ऐसी फ़र्ज़ी कहानियाँ बनाना अगर खोजी पत्रकारिता है तो मैं कौनसा बुरा हूँ?
सिद्धार्थ वरदराजन को लोग लाखों रुपये महीने में इसी झाँसेबाज़ी के लिए देते हैं तो हमारे एक्स क्रिकेटर साहब विपुल भाई कौनसा बुरे हैं ?
कूटनीति (जियोपोलिटिक्स ) के क्षेत्र में उनके जैसी सटीक खबरें देने वाले लोग बहुत कम हैं और फील्ड में भी रहते हैं।
धन्यवाद
विजयंत खत्री
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