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काव्य शायरी

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समीर

समीर

ख्वाहिश..कभी टूटते सितारे को देख, थी एक मैंने ख्वाहिश करी,

कभी तकदीर की लिखाई से, यूँ ज़ोर आज़माइश करी,

पर सितारा जो टुटा तो मेरे ख़्वाब भी संग टूट गए,

और तकदीर के साए में छुप के सारे वो रंग रूठ गए,

अब लगता है के एक नज़्म लिख के कलम ये तोड़ दूँ,

और दिल के इन ज़ख्मों में थोड़ा सा और गम निचोड़ दूँ,

अब जो भूला हूँ, वो कहीं फिर से न मुझको याद आए,

उसके ख्यालों से, सवालों से भी नाता तोड़ दूँ,

तो पोंछ लेता हूँ ये आँखें, क्यों हैं अश्कों से भरीं,

जो कभी टूटते सितारे को देख, थी एक मैंने ख़्वाहिश करी, थी एक मैंने ख़्वाहिश करी..

अब साहिल के किनारे पर बैठ, हर घड़ी मैं सोचता,

बीते कल की हर परत को, खींचता, मैं नोचता,

अब नंगी सी एक शाख़ है, जिसपे न पत्ता एक भी,

और बैठा एक पंछी वहीँ, सावन की राहें खोजता,

प्यासा है वो, और आस में बैठा है वो कबसे बड़ी,

जो कभी टूटते सितारे को देख, थी एक मैंने ख़्वाहिश करी, थी एक मैंने ख़्वाहिश करी..

जो अब भी न बरसा तो उसकी जान ही न निकल पड़े,

बादल बड़ा बेदिल है तू, इल्ज़ाम हम तुझ पर मढ़े,

पर अन्जान साज़िश से वो तेरी, राह अब भी तक रहा,

आँखों में है कुछ नींद, फिर भी आस में वो जग रहा,

अब कुछ पलों की बात है, साँसों में अब न ज़ोर है,

जो रात अब है फैलती, उसकी न कोई भोर है,

पर प्यार करता है तुझे, नहीं शिकवा उसे अब भी कोई,

और मूँद लेता है वो आँखें, उम्मीद में डूबी हुईं,

आखिर में करता गया वो, तुझे इन गुनाहों से बरी,

क्यों कभी टूटते सितारे को देख, थी एक मैंने ख़्वाहिश करी, थी एक मैंने ख़्वाहिश करी..

समीर 

समीर

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