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लेखक -विपुल
सर्वाधिकार सुरक्षित- Exxcricketer.com

ये लेख कूटनीति पर है।
थोड़ा लम्बा है,पर अगर अच्छा लगे तो पढें वरना मजबूरी नहीं है।

कूटनीति में और विभिन्न देशों के आपसी संबंधों में रूचि हो तो आइये।
हिंदी में इस विषय पर ज़्यादा लोग नहीं लिखते हैं।

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सोवियत संघ की समाप्ति

बात यहाँ से शुरू करते हैं कि अभी जो भारत और भारत के पड़ोसियों के अलावा यूरोप में चल रहा है, उसकी जड़ें 1989 में हैं ।जब शीतयुद्ध में अघोषित तौर पर जीत हासिल कर अमेरिका ने सोवियत संघ को समाप्त कर दिया था।
ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका चिल्लाने वाले सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोरबाच्योव ने घुटने टेक दिए थे।

ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका का मतलब शायद पूंजीवाद और खुलेपन से था।दुनिया में इसके पहले स्पष्ट तौर पर दो गुट थे ।एक सोवियत संघ और दूसरा अमेरिका का ।
अमेरिका और उसके समर्थक अपने को खुला और लोकतांत्रिक समाज दिखाते थे ,सोवियत संघ और उसके समर्थक ज़्यादातर कम्युनिस्ट देश थे।

लेकिन मज़े की बात ये है कि लोकतांत्रिक कहलाने वाले अमेरिका और पश्चिम यूरोपीय देशों के साथ सऊदी अरब जैसे कट्टर इस्लामिक देश थे जो लोकतंत्र को नहीं मानते थे और खुद को लोकतांत्रिक गुट निरपेक्ष कहलाने वाला भारत हमेशा सोवियत संघ के पाले में खड़ा ही दिखता था।

1980 के मास्को ओलंपिक का बहिष्कार अमेरिका और समर्थक देशों ने किया था तो 1984 के लॉस एंजेलिस ओलिम्पिक का बहिष्कार सोवियत संघ और समर्थक देशों ने किया।
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था 1989 तक चरमरा चुकी थी।
अफगानिस्तान में नजीब शाह समर्थक रूसी फौजों को अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन ने पस्त कर दिया था ।

तो कुल मिलाकर इसी समय मंदी और कर्ज में डूबे सोवियत संघ के राष्ट्रपति गोरबच्योब ने सोवियत संघ के विघटन का एलान किया।
यूक्रेन,जॉर्जिया ,बेलारूस ,
क़ज़ाकिस्तान,ताजिकिस्तान ,
उज़्बेकिस्तान, आर्मीनिया ,
अजर बेजान जैसे तमाम देश सोवियत संघ से अलग होकर स्वतंत्र हुये ।
चीन सतर्क हो गया।

महाशक्ति बनता चीन

गोरबच्योब रूस के खलनायक बन गए।इसी समय बोरिस येल्तसिन रूस में उभरे जो राष्ट्रपति बने ।ये गोरबच्योब को गाली देने में कसर नहीं रखते थे।
रूस की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी।चीन के शासक देंग ज़िआओ पिंग ने वस्तुस्थिति समझी और चीन में आंशिक खुलापन आना शुरू हुआ।

चीन ने इसी समय व्यापारी वर्ग को सहूलियतें देना शुरू कीं, देश में उत्पादों के निर्माण पर विशेष ध्यान देना शुरू किया।युवाओं को पश्चिमी सभ्यता की रंगीनियां अपने यहाँ भी देनी शुरू कीं
क्योंकि अमेरिका प्रायोजित थ्येनआनमन चौक पर प्रदर्शन पर उसे अपने ही छात्रों पर टैंक चढ़ाने पड़े थे ।

दरअसल सोवियत संघ का दुर्भेद्य किला ढहाने के बाद अमेरिका ने लोकतंत्र लाने के नाम पर चीन को भी गिराने की कोशिश की थी लेकिन चीन के शासकवर्ग ने कोई मुरव्वत नहीं की ।प्रदर्शनकारी नहीं माने तो टैंक चढ़ा दिये उनपर।
प्रदर्शनकारियों के समर्थक पत्रकारों को फांसी दे दी गई थी।

पर चीन के नेता देंग झियाओ पिंग दूरदर्शी थे ।युवाओं की नाराजगी भांप गये थे ।
उन्होंने चीन में आंशिक पूंजीवाद लाना शुरू किया।
उनकी कही एक बात आज भी पूरा चीन मानता है।
“बिल्ली काली हो या सफेद ,इससे फर्क नहीं पड़ता ,वो चूहे पकड़ती है या नहीं ?”
“इससे फर्क पड़ता है ।”
चीन इसी बात पर कायम है आज तक ।

आपको बहुत लोग नहीं बताएंगे ,
चीन में पोर्न, सट्टा, इंस्टाग्राम टाईप मॉडलिंग ,ड्रग्स सब चलता है ,बस सरकारी नियंत्रण में है ये सब।
सरकार के खिलाफ जाते ही पुश्तें खत्म कर दी जाती हैं।
कई भारतीय अभिनेत्रियां ,
इंस्टाग्राम मॉडल्स चीन से ढेरों कमा रही हैं
खैर दोबारा आते हैं अपने मुद्दे पर।

तत्कालीन महत्वपूर्ण घटनाएं

1987- 88 से 1992 -93 तक के कालखंड में पूरी दुनिया में इतनी बड़ी बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं हैं कि मैं ब्यौरा देने बैठूंगा तो 7 दिन और 10 हज़ार लेख कम पड़ जायेंगे इसलिए मोटी मोटी बातें करते हैं।
इस कालखंड की कुछ मुख्य घटनाएं ये हैं ।

शीतयुद्ध ,शीतयुद्ध की समाप्ति, ईरान इराक युद्ध ,सोवियत संघ का विघटन ।
जर्मनी का एकीकरण, यूगोस्लाविया का 6 देशों में विघटन, अमेरिका का पनामा पर हमला, इराक का कुवैत पर हमला, अमेरिका का इराक पर हमला, चीन में छात्रों पर टैंक चढ़ाना, हॉन्गकॉन्ग का ब्रिटेन से हटकर चीन के पास जाना ,आसियान का उदय, पाकिस्तान का उत्तर कोरिया से परमाणु तकनीक चुराना।
अमेरिका का भारत को सुपर कम्प्यूटर देने से मना करना, जीएसएलवी तकनीक देने से मना करना ,भारत का मार्केट खुलना, चीन का आंशिक मार्केट खुलना, ब्रिटेन और फ्रांस की ताकत कम होना, रूस की भुखमरी।ऑस्ट्रेलिया का ध्यान इंडोनेशिया से हट कर चीन पर जाना।दक्षिण अफ्रीका के प्रतिबंध समाप्त होना

कितना बतायें ,तब भी रह जायेगा।इसलिए केवल अपने मतलब की बात करते हैं हम।

खाड़ी युद्ध और भारत


1990 के बाद ये वो समय था जब भारत का हितैषी सोवियत संघ समाप्त हो चुका था,रूस कमजोर था और अमेरिका से डरा हुआ चीन भारत से वाकई मधुर संबंध बनाना चाहता था ,पर किन्हीं कारणों से भारत और चीन दोनों ये मौका चूक गये ।

इसी समय इराक ने कुवैत पर हमला किया और अमेरिका की सहयोगी सेनाओं ने इराक पर जवाबी हमला कर दिया। अमेरिकी सेना की पश्चिमी एशिया में स्थाई रूप से एंट्री हो गई।भारत की कमजोर चंद्रशेखर सरकार किसी मजबूत स्थिति में नहीं थी, बस सोना बेच पा रही थी। तत्कालीन भारतीय सरकार तेल उत्पादक देशों के आपसी चक्कर में नहीं पड़ना चाहती थी।

तेल का खेल

अब तेल की बात हो रही है तो एक विशेष बात कर ही लेते हैं।
भारत जो कोंग्रेसी सरकार के समय इज़राइल से संपर्क नहीं रखे था और फिलिस्तीन लिबरेशन आर्मी के अध्यक्ष यासिर अराफात को बहुत भाव देता था, वो बिल्कुल सही था ।
बस आप केवल भगवा हिंदू शेर वाला चश्मा उतार के देखें।मैं
वजह भी बताता हूँ।

इज़राइल को आप दरअसल एक देश नहीं ,अमेरिका का इक्यावनवां प्रांत मानो जो पश्चिमी एशिया में स्थित है और अमेरिका अरब प्रायद्वीप की चीजों को इज़राइल से ही कंट्रोल करता है।सऊदी अरब सहित कई अरब देश अमेरिका की कठपुतली ही थे या अमेरिका के भरोसेमंद साथी थे ।
इस्लामी आतंकवाद वैसे भी अमेरिका का एक औजार है ।

सोवियत संघ की न तो इज़राइल से बनती थी न अरब देशों से ,
पर इज़राइल ज़्यादा बड़ा शत्रु था सोवियत संघ के लिये।
अरब देशों से सोवियत संघ की बस इतनी ही नाराजगी थी कि अरब देश तेल की खरीद बेची अब केवल यूएस डॉलर में करने लगे थे।सोवियत संघ के पास खुद ही तेल के कुँए थे।पर भारत की मुख्य तेल सप्लाई अरब देशों से ही थी।

एक तो भारत इज़राइल के साथ खड़े दिख कर अपने विश्वसनीय साथी सोवियत संघ को नाराज नहीं करना चाहता था, दूसरे भारत तेल उत्पादक अरब देशों की नाराजगी भी नहीं लेना चाहता था।

आसियान

अब हम 1991से आगे बढ़ते हैं
तब तक पश्चिमी देश भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू पर तौलते थे।
जो भी बड़ा राष्ट्राध्यक्ष भारत आता था ,पाकिस्तान ज़रूर जाता था भारत आने के ठीक बाद या ठीक पहले।
भारत खुशकिस्मत था कि पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने आर्थिक सुधार करके भारत को आगे बढ़ाया ।इसी कालखंड में आसियान का उदय होता है जिसमे मलेशिया ,सिंगापुर सहित 7 पूर्वी एशिया के देश थे ।
दूरदर्शी राव ने सबसे पहले लुक ईस्ट नीति अपनाई थी ।

इस समय रूस कमजोर था, अमेरिका विश्व परिदृश्य में एकछत्र राज्य कर रहा था, चीन दोबारा पीक पकड़ रहा था ,आसियान देश बहुत मजबूत अर्थव्यवस्था थे।
भारत और चीन दोनों ने ही आसियान में घुसने का प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिली।इधर ऑस्ट्रेलिया अब इंडोनेशिया से हटकर चीन को खतरा मानने लगा था ।

इस समय भारत की समस्या ये थी कि जापान और दक्षिण कोरिया भारत के लगभग शत्रु थे और चीन और उत्तर कोरिया दोस्त नहीं थे।
अमेरिका भारत का भरोसा नहीं करता था ,रूस भारत से नाराज था
पाकिस्तान घोषित शत्रु था, अफगानिस्तान और ईरान भारत को शक से देख रहे थे
नेपाल ,श्रीलंका चीन की तरफ जाते दिख रहे थे।

पाकिस्तान और अमेरिका के समर्थन से तालिबान अफगानिस्तान में काबिज हो चुका था।चीन नेपाल के द्वारा भारत पर शिकंजा कसना चाह रहा था ।
अब यहाँ मैं सबसे महत्वपूर्ण बात करूंगा जो शायद आप न मानें पर मुझे फर्क नहीं पड़ता ।मेरी जानकारी के अनुसार ये तथ्य है और बिल्कुल सही तथ्य है।
क्या है ये बिलकुल सही तथ्य ?

केजेबी और सीआईए

तथ्य ये है कि भारत की सारी राजनीति केजेबी और सीआईए के साथ चाइना की सीक्रेट एजेंसी द्वारा भी चलती है।तमिलनाडु के पुराने घाघ नेता सुब्रमण्यम स्वामी की कुछ बातें सही हैं ।
जैसे कि एक विशेष भारतीय राजनीतिक परिवार केजेबी के अनुसार चलता है ।लेकिन वो आधी बात गोल कर जाते हैं।
बाकी आधी बात ये है कि एक भारत की स्वघोषित देशभक्त पार्टी अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की कठपुतली है।

और ये बात मैं अपनी छाती ठोंक कर पूरी जिम्मेदारी से कहता हूँ ।तथाकथित युवराज की विदेश यात्राओं के बाद निस्संदेह देश में अराजकता फैलती है पर कुछ देशभक्त पार्टी के नेताओ की विदेश यात्राओं के रिकॉर्ड पर नजर डालिए तो ज़रा।
विशेष तौर पर जब ये पार्टी सत्ता में नहीं थी।
बहुत कुछ न कहा जाए तो बेहतर है।वैसे भी मैं हमेशा बताता हूँ कि कूटनीति में कुछ कहने से ज़्यादा कुछ न कहने का महत्व ज़्यादा है।

तो 1998 में भारत ने परमाणु परीक्षण किया ,जब अटल बिहारी सरकार थी,
अमेरिका की टेक्नोलॉजी को चकमा देकर (🤣🤣)
पोखरण में।
दुनिया में खलबली मच गई ।
कारगिल युद्ध हुआ।
अमेरिका की मध्यस्थता से खत्म हुआ।
तब तक रूस में पुतिन आ चुके थे।
और लाइमलाइट में ओसामा बिन लादेन।

इस्लामी आतंकवाद

इस्लामी आतंकवाद का ये दौर अमेरिका की शह से 1980 से चल रहा था।
कश्मीर ,सउदी अरब ,नाइजीरिया और यमन हर जगह।
भारत परमाणु परीक्षण के बाद के आर्थिक प्रतिबंध झेल ले गया था।ऑस्ट्रेलिया ने भी भारत को आंख दिखाई थी ,प्रतिबंध के नाम पर।
उसके उपप्रधानमंत्री को 2 घण्टे इंतज़ार करवा के औकात दिखा दी गई थी तत्कालीन भारत सरकार द्वारा।

2001में ट्विन टावर हमले के बाद अचानक बहुत कुछ बदला।बुश प्रशासन ने अल कायदा, तालिबान ,सद्दाम को ठिकाने लगाया।भारत में वो सरकार सत्ता में थी जो अमेरिका परस्त थी।रूस खोई शक्ति हासिल कर रहा था।चीन वन बेल्ट वन रोड योजना पर गम्भीर था।अरब प्रायद्वीप में शक्ति संतुलन बदल रहे थे।

स्ट्रिंग ऑफ पर्ल

भारत के अब इज़राइल से औपचारिक सम्बंध बन चुके थे।पर 2004 में केजेबी वाली सरकार बनी ।इसी समय चीन ने भारत मे तगड़ी दिलचस्पी लेनी शुरू की।चीन जानता था केवल भारत ही obor योजना में पलीता लगा सकता है ,इसलिये स्ट्रिंग ऑफ पर्ल योजना बना के भारत के सभी पड़ोसियों से भारत को उलझा देने और ब्लैकमेल करने की नीति को चीन ने आगे बढ़ाया।

अचानक संदेहास्पद रूप से इसी समय भारत के बहुत छात्र चीन पढ़ने जाने लगे,लोग चीन घूमने जाने लगे।
चीनी लड़कियों के अफेयर अमेरिका ,यूरोप ,भारत के लड़कों से होने लगे।अमेरिका यूरोप और भारत के बहुत से लड़कों की गर्लफ्रैंड और बहुत सी लड़कियों के बॉयफ्रेंड चाइनीज होने लगे।

2008 में रूस ने जॉर्जिया के कुछ हिस्से पर कब्जा कर लिया।कोई कुछ नहीं कर पाया।सरकार को समर्थन दे रही कम्युनिस्ट पार्टियों के विरोध के बावजूद मनमोहन सरकार ने अमेरिका से परमाणु ऊर्जा समझौते किये ।मनमोहन सरकार बची रही।

2008 में मुंबई हमलों में बॉलीवुड के लोग शामिल थे ,पाकिस्तान के और इंग्लैंड के भी।

भारत के तगड़े गुस्से के बाद भी
अमेरिका चीन और रूस के दबाव के कारण भारत पाकिस्तान युद्ध टल गया 2008 में ।2009 में फिर भारत में वो सरकार बनी जो निश्चित तौर पर अमेरिका को पसन्द नहीं थी।

सीआईए का दिल्ली आंदोलन

इसलिए अमेरिका से ट्रेनिंग पाकर लौटे नेताओं ने नई दिल्ली में एक आंदोलन शुरू किया ,जिसे अभूतपूर्व मीडिया कवरेज दी गई।

चाइना चुपचाप अपनी बारी का इंतजार कर रहा था।केवल भारत ही नहीं ,बहुत से देशों में।
कई प्रख्यात साहित्यकार, पत्रकार, फ़िल्म हस्तियां हायर की गई चाइनीज सीक्रेट एजेंसी द्वारा।उन्हें सोशल मीडिया प्रिंट मीडिया और जनता के बीच मंच दिए गए।
चाइना का मकसद केवल ओबोर नहीं था अब बल्कि शी जिनपिंग को अब सोवियत संघ वाली खाली जगह चीन के लिये दिखने लगी थी।
समुद्र में कृत्रिम टापू औऱ उपेक्षित अफ्रीका पर नज़र।
यूरोप अमेरिका और रूस द्वारा उपेक्षित अफ्रीका का सबसे बड़ा खिलाड़ी अब चीन था।

अरब बसंत

अरब के तेल के खेल अलग चल रहे थे ।
ट्यूनीशिया में एक फल वाले का ठेला पुलिस गिराती है और अरब वसंत या अरब स्प्रिंग आता है।

और इस अरब वसंत आंदोलन में सारी वो सरकारें पलट जाती हैं जिन्हें चीन की सहायता लेने से गुरेज नहीं था ।
सऊदी अरब जैसे अमेरिका समर्थक देशों की सरकार बची रहती है ।😂😂😂
अरब वसंत की शुरुआत की ये फलों के ठेले वाली कहानी उतनी ही फ़र्ज़ी है ,जितना मगरमच्छ पर बाल —– की।
खैर !रहने दो!

इधर अरब स्प्रिंग के बाद लीबिया के कर्नल गद्दाफ़ी जैसे अमेरिका विरोधी अरब तानाशाह निपटा दिए गए और सऊदी अरब और ईरान को नियंत्रण में रखने के लिये सीआईए ने बगदादी की आईएसआईएस को बढ़ाया।
हमेशा की तरह isis के इस्लामी आतंकवाद के पीछे अमेरिका ही था।

आई एस आई एस और सीरिया


2014 में अचानक धूमकेतु सा उभरा isis
2014 में ही आधे से ज़्यादा अरब पर isis का कब्ज़ा हो गया
दरअसल अमेरिका को ये डर था कि अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की तरह चीन अरब में भी पैर न फैला ले।
रूस को भी अमेरिका ने अब सीरियसली लेना शुरू कर दिया था
यूक्रेन के क्रीमिया प्रांत पर रूस के कब्जे पर विश्व शक्तियां चुप रहीं।
पुतिन अब निर्मम और निरंकुश हो रहे थे।

दुनिया मे दो महत्वपूर्ण तेल गैस पाईप लाइन हैं।
एक रूस से पश्चिमी यूरोप,
दूसरी सीरिया से यूरोप।
सीरिया वाली इस पाइपलाइन पर कब्जे के लिए isis ने सीरिया के असद विद्रोहियों का साथ पकड़ा।पीछे अमेरिका था।
अमेरिका द्वारा असद को हटाने की पिछली कोशिश नाकाम रही थी।इराक की तरह रासायनिक हथियारों का बहाना अमेरिका सददाम हुसैन की तरह ही सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद को निपटा कर सीरिया वाली गैस पाइप लाइन अपने कब्जे में लेना चाहता था।

जबकि रासायनिक हथियार रूस का प्रमुख शस्त्र है और जैविक हथियार अमेरिका का ।
हालांकि चीन उत्तर कोरिया और भारत ,ये दोनों तरह के हथियार बनाने के लिये प्रयासरत रहते हैं।
जी हां ,आपने सही सुना ,भारत की भी बायोलैब हैं ।केमिकल लैब भी विशुद्ध युद्ध उद्देश्यों के लिये।
आज जान लो आप ।

तो सीरिया के असद सीधे पुतिन की गोद में जा गिरे ,जिन्हें अपना हश्र गद्दाफ़ी या सददाम हुसैन जैसा होने की आशंका थी।
रूस ने ये मौका भुनाया और गैस पाइपलाइन का महत्व देखते हुए असद को खुला समर्थन दिया जबकि अमेरिका मानवाधिकार के नाम पर असद को घेर रहा था।
ये वो वक्त था जब यूरोप अरब से आये इस्लामी शरणार्थियों से जूझ रहा था ।

अमेरिका की मित्र सेना लगातार isis से लड़ती दिख रही थी पर isis खत्म नहीं हो रहा था
Isis को हथियार ,खाद्यान्न ,दवाएं ,डॉक्टर और तेल कहाँ से मिल रहा था, ये पता नहीं चल पा रहा था।अमेरिका की इतनी कोशिश के बावजूद isis खत्म क्यों नहीं हो रहा था ?
क्या isis को चीन का समर्थन था?सारी दुनिया के मन में ये सवाल था।

पर अचानक रूस की वायु सेना उन असद विद्रोहियों पर सीरिया में बम बरसाती है जिन्हें अमेरिका लोकतंत्र सेनानी बता रहा था ।इधर असद विद्रोही कमजोर पड़ते हैं,उधर isis लगभग खत्म हो जाती है ।
मतलब असद विद्रोही दरअसल isis थे जिन्हें अमेरिका की शह थी ।
अब रूस और अमेरिका में तलवारें फिर तन चुकी थीं।

सी आई ए की कठपुतलियां

सीआईए प्रायोजित भारत के 2011 के नई दिल्ली में हुए एक आंदोलन से भारत की राजनीति में बहुत चीज़ें बदली।भारत मे केजेबी के विरुद्ध चीनी सीक्रेट सर्विसेज भी काम पर थीं।
सोशल मीडिया साइट्स के रूप में भारत मे इन दोनों खुफिया एजेंसियों को नया औजार मिल चुका था।

अधपके न्यूज चैनल ,एंकर भी मोहरा थे ।कुछ बॉलीवुड के लोग हायर हुये।मीम और ट्रोल नामकी नई चीज ईजाद हुई।नए लड़के सोशल मीडिया के लिये हायर हुए जिन्हें इन सीआईए की कठपुतली दो नेताओं की छवि चमकानी थी ।अलग अलग पार्टी से और दोनों को विरोधी भी दिखाना था।
वाया कनाडा पैसा आ रहा था।

सीआईए सफल रही ,उसका कठपुतली एक नेता दिल्ली में बैठा।
एक देश भर में सफल रहा ।
केजेबी परेशान होती हुई।
पर चीन की मंशा पूरी नहीं हुई ।उसका दांव केवल इतना था कि भारत में अस्थिर सरकार बने, मज़बूत नहीं।
इसलिए चीन को अब कुछ नया सोचना पड़ रहा था।

2008 में भारत की एक राजनीतिक पार्टी के नेता की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना से हुई डील चीन ने सामने ला दी ।
उसके लिये ये नेता ज़्यादा मायने नहीं रखता था क्योंकि ये केजेबी का पिट्ठू था।
ओबोर योजना की सफलता के लिये भारत का खुद में उलझे रहना जरूरी था।केजेबी अपने मौके के इंतजार में थी।

दो दो गैस पाइप लाईन पर कब्जे के बाद रूस अब अमेरिका के सामने सीना ताने था।भारत का नेता अरब देशों सहित कई देशों के लगातार चक्कर काट रहा था, अमेरिका के आदेश पर भारत को जापान ,ऑस्ट्रेलिया ,दक्षिण कोरिया ,अरब देशों से सम्बंध बढाने थे ।
जिनपिंग भारत से संबंध सुधारते दिखना चाहते थे, पर मन में कुछ और था उनके ।

रूस की नाराजगी

पुतिन भारत से खुश नहीं थे।ट्रम्प के आने के बाद भारत के नेता से ट्रम्प की नज़दीकी से और नाराज़ हुये।
भारत खुल के अमेरिकी पाले में दिख रहा था।
पर भारत को दाबने के लिये रूस के पास बहुत पत्ते थे।
अबकी बार केजेबी ने चीन से हाथ मिलाया।
भारत रूस के लिये बहुत महत्वपूर्ण था।
हिन्द महासागर के कारण ।

भारत में केजेबी के प्रोड्यूशन और चीनी डायरेक्शन में तमाम उपद्रव शुरू हो गए।हर बात पर सरकार का विरोध होने लगा।बड़े बड़े सेलिब्रिटी हायर थे सरकार विरोध के लिए।
सीआईए सब देख रही थी।
भारत के नेता को शांत रहने की हिदायत दी गई।

रूस को शांत करने के लिये असली से ज़्यादा कीमत पर एस 400 की खरीद की पेशकश की भारत सरकार ने ।

ये पेशकश रूस ने तुरंत मानी, पैसा किसे काटता है?
फ्रांस से राफेल खरीद के फ्रांस को साधने के प्रयास हुये क्योंकि अफ्रीका में भारत के हित चीन से टकरा रहे थे और अफ्रीका में भारत की मदद फ्रांस ही कर सकता था।
ये भारत सरकार की सोच थी ,सीआईए की भी यही सोच थी।
चीन को साधने के लिये क्वाड बनाया गया अमेरिका द्वारा ।

क्वाड में भारत को रखा गया।चीन पर नकेल के लिये।इधर रूस ने अमेरिका से पुराना बदला ले लिया।नये तालिबान को रूस का पूरा समर्थन था।
अमेरिका समर्थित गनी को अफगानिस्तान छोड़ के भागना पड़ा।ये रूस की अमेरिका पर सीरिया के बाद दूसरी विजय थी।पाकिस्तान में भी केजेबी काम कर रही थी।

रूस यूक्रेन और अमेरिका

रूस को दाबने के लिये अमेरिका ने उसे घेरने का प्लान बनाया यूक्रेन को नाटो में शामिल करने का ऑफर देकर ।
यूक्रेन की सीमा रूस से लगी थी यहाँ नाटो की फौज कायम होने का मतलब था,रूस पर कभी भी हमला! बड़ी आसानी से।
अमेरिका को रूस ऐसा स्थलीय नुकसान नहीं पहुंचा सकता था।यूक्रेन का राष्ट्रपति ज़लेंसकी सीआईए का आदमी था।

ज़लेंसकी ने खुल के पुतिन का विरोध किया था अपने चुनाव में भी और चुनाव जीतने के बाद भी।
रूस सेना ने अपने लिये खतरा देख कर पहले चेतावनी देकर पहले दो महीने यूक्रेन की घेराबंदी की फिर आक्रमण।

अमेरिका को ये उम्मीद नहीं थी कि रूस द्वारा यूक्रेन पर स्थलीय आक्रमण किया जाएगा ।
तो पहले मीडिया द्वारा मैनेज करने का प्रयास हुआ, फिर रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों से ।
लेकिन रूस पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ा,इस सबका।

हालांकि पुतिन यूक्रेन की सैन्य ताकत का अंदाजा लगाने में चूक गए थे ।नाटो की सेनाएं और हथियार पहले ही यूक्रेन में थे।कुछ दिनों बाद रूस ने रणनीति बदली।अब रूस का ध्यान यूक्रेन की समुद्री सीमा पर कब्ज़ा था।ये रूस ने पूरा किया।
वर्तमान में यूक्रेन की सारी समुद्री सीमा रूस के कब्जे में हैं।
भारत पशोपेश में रह गया ।रूस का विरोध नहीं कर पाया ।कमजोर होते रूस ने भारत के आगे सस्ते तेल का विकल्प रखा ।
अमेरिका भारत की रूस से बढ़ती नज़दीकी से नाराज़ हुआ।
अरब देशों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाई गई।
मालिक फिर सरेंडर हुये अमेरिकी आकाओं के आगे।

समाप्त

विपुल

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