
मानसिक रोगियों की बात
आपका -विपुल
फ़र्ज़ करें कि आप के पैर में अचानक कोई चोट लगी, काँच लग गई या कील, खून निकला। आप क्या करेंगे?
आप तुरंत घाव साफ करेंगे और डॉक्टर के पास एंटी टिटनेस इंजेक्शन लगवाने भागेंगे। आप स्वीकार लेंगे कि आपको चोट लगी है और आपको इलाज चाहिये।
जानबूझ के मैंने बहुत छोटी शारीरिक चोट की बात की है।
बड़ी शारीरिक बीमारियों की नहीं।
कहने का तात्पर्य ये है कि शारीरिक रोगों को आदमी न केवल तुरंत स्वीकार लेता है बल्कि बिना शर्माये इलाज के लिये भी जाता है।
शारीरिक बीमारियों के डॉक्टर भी सर्वसुलभ होते हैं। बहुत बड़ी बीमारियों के स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की बात छोड़ दें तो सामान्य शारीरिक बीमारियों के डॉक्टर हर शहर में तमाम मिलेंगे और वो भी हर तरह के।
मतलब एम बी बी एस, आयुर्वेदिक, यूनानी, हर तरह के।
अब मानसिक बीमारियों पर आते हैं।

मानसिक बीमार आदमी को पहले तो पता ही नहीं होता कि वह मानसिक बीमार है और उसके बाद अगर उसे ये अहसास भी होने लगे कि उसे कोई मानसिक बीमारी है तो वो खुद ही इस चीज को स्वीकारने का इच्छुक नहीं होता।
इसकी कई वजहों में से एक ये भी है कि आम भारतीय समाज में मानसिक रोगी के सीधा मतलब पागल ही समझा जाता है और कोई अपने को पागल नहीं कहलाना चाहता।
दरअसल भारतीय समाज में एक आम धारणा है कि हर मानसिक रोगी पागल ही होता है और उस मरीज को इलाज के लिये पागलखाने में बंद कर दिया जाता है जहां से उसके सही सलामत निकलने की कोई गारंटी नहीं होती।

एक आम व्यक्ति यही समझता है कि पागलखाने एक जेल की तरह होते हैं और इसके अलावा अगर वो पागल घोषित कर दिया गया तो उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा, रिश्ते नातों का क्या होगा?
उसके परिवार का, उसकी संपत्ति का , उसके व्यवसाय का क्या होगा?
और उस मानसिक बीमार व्यक्ति का ऐसा सोचना गलत भी नहीं होता।
पता है क्यों?
गौर करें।
एक काना, लूला, लंगड़ा, कैंसर का मरीज या दिल का मरीज चुनाव लड़ सकता है। एक अपाहिज के बयान की अहमियत होती है।
एक हार्ट पेशेंट अपना बैंक एकाउंट चला सकता है।
पर एक घोषित मानसिक रोगी को सरकार ये सहूलियतें नहीं देती।
फिर समाज में एक मानसिक रोगी की क्या हैसियत होगी? उसे किस नजरों से देखा जायेगा?
इसके बारे में क्या बोलें? आप खुद समझदार हैं।

इन्हीं सब वजहों से कोई भी व्यक्ति ये स्वीकार करने को जल्द तैयार नहीं होता कि उसे कोई मानसिक रोग है।
मुझे कोई वास्तविक मानसिक रोग है और उसका इलाज करवाना है, ये बात जल्द कोई व्यक्ति स्वयं तय नहीं कर पाता।
और यहीं से उस मानसिक रोगी के परिवार का रोल शुरू होता है।
लेकिन अगर कोई वास्तविक मानसिक रोगी व्यक्ति स्वयं तय कर ले कि उसे मानसिक रोग है जिसका उसे इलाज करवाना है, ये बात वो अपने परिवार को बताये तो जल्द उसके परिवार वाले भी नहीं मानते और जल्द इलाज को नहीं जाते।
इसका एक बड़ा कारण परिवार की उस मानसिक रोगी के कारण समाज में हो सकने वाली बेइज्जती भी होती है।
कई केसेज में परिवार को उस मानसिक रोगी से पहले ही पता होता है कि मेरे बच्चे या मेरे मां बाप/भाई बहन, पति/पत्नी को मानसिक बीमारी लगी है, पर वो इस बात को खोलना नहीं चाहते क्योंकि समाज में बदनामी हो सकती है।
वो उस व्यक्ति को पूजा पाठ, योग ध्यान सब करवायेंगे, बस ये स्वीकार करने से सामाजिक तौर पर इनकार करेंगे कि मेरे परिवार के इस व्यक्ति को कोई मानसिक रोग है।
अगर मान लें कि मानसिक रोगी और उसका परिवार इलाज करवाने को तैयार भी हो गया तो तीसरी समस्या पैसों से जुड़ी होती है ।
2018 के पहले तक सामान्य हेल्थ इंश्योरेंस में मानसिक बीमारियों के इलाज के लिये पैसे देने का प्रावधान नहीं होता था और अभी भी कई हेल्थ इंश्योरेंस मानसिक बीमारियों को अपने पैकेज में शामिल करने से बचने के प्रयास में रहते हैं, जिस कारण ज्यादा लोगों को पता नहीं कि मानसिक स्वास्थ्य के लिये भी हेल्थ इंश्योरेंस का प्रावधान है।
दीपिका पादुकोण को ब्रांड एम्बेसडर बनाने से ज्यादा मानसिक रोगों के इलाज वाले हेल्थ इंश्योरेंस के बारे में जागरूकता बढ़ाना ज्यादा जरूरी था। इससे वाकई बहुत से लोगों का भला होता।

और फिर मान लीजिये अगर किसी मानसिक रोगी के परिवार ने उसके इलाज के लिये जैसे तैसे पैसों की व्यवस्था भी कर ली तो उससे बड़ा सिरदर्द होता है, मानसिक रोगों का कोई अच्छा डॉक्टर ढूंढना।
आजकल बड़े शहरों में महंगे साइकियाट्रिस्ट बहुत मिलने लगे हैं, पर आज भी पूरे भारत में मनोरोग विशेषज्ञ बहुत कम हैं और अच्छे मनोरोग विशेषज्ञ तो दुर्लभ ही हैं।
हर शहर में मनोरोग विशेषज्ञ नहीं मिलते। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में जहां 75 जिले हैं, वहां भी हर जिले पर आपको मनोरोग विशेषज्ञ नहीं मिलेगा।
न सरकारी, न प्राइवेट।
बाकी छोटे शहरों, कस्बों, गांवों की बात तो जाने ही दें।
कुछ मानसिक रोगियों का इलाज भी होता है और कुछ सही भी होते हैं।
पर फिर भी ऐसे लोग वास्तविक जीवन में कभी वो मुकाम नहीं पा पाते जहां जिस मुकाम पर वो इस बीमारी के पहले थे
जब शारीरिक चोट भी अपना निशान ताजिंदगी के लिये छोड़ जाती है तो फिर तो ये मानसिक चोट होती है।
जिस तरह एक हार्ट पेशेंट, एक कैंसर पेशेंट, सही होने के बाद भी वो चपलता नहीं पाता जैसा वो बीमारी के पहले था, वही हाल मानसिक रोगियों का भी होता है।
कोई भी मानसिक रोगी अपनी आपबीती कभी नहीं भुला पाता। बस वो इस सब के साथ जीना सीख जाता है।
बात चली है तो मानसिक रोगों के बारे में कुछ और बात कर लें।
अवसाद या डिप्रेशन को लोग आजकल सबसे बड़ी मानसिक बीमारी मानने लगे हैं और “मैं डिप्रेशन में हूं” ये कहना फैशन में भी है।
पर दरअसल डिप्रेशन खुद में एक मानसिक बीमारी होने से ज्यादा किसी और मानसिक बीमारी के कारण होने वाला दुष्प्रभाव है।
मानसिक रोगों में वैसे भी केवल अवसाद डिप्रेशन ही नहीं आता। जैसे शारीरिक रोग अनगिनत और अनेकों प्रकार के हैं वैसे ही मानसिक रोग भी अनगिनत और अनेकों प्रकार के हैं।
जैसे बुखार को लोग एक बीमारी समझते हैं, पर वो एक वास्तविक बीमारी नहीं बल्कि किसी बीमारी के कारण उभरा प्रभाव होता है,वैसे ही डिप्रेशन खुद में अपने आप एक बीमारी नहीं बल्कि किसी मानसिक बीमारी के कारण उभरी बीमारी होती है।
पैरासीटामोल लेकर आप केवल बुखार उतार सकते हैं पर यदि वो बुखार किसी बड़ी बीमारी के कारण आता है तो पैरासिटामोल का असर खत्म होते ही बुखार फिर उभर आयेगा क्योंकि आपने केवल बुखार उतारने की दवा ली, वास्तविक बीमारी का इलाज तो हुआ ही नहीं।
वैसे ही आधे से अधिक वास्तविक डिप्रेशन किसी दूसरी बड़ी मानसिक बीमारी के कारण होते हैं, केवल डिप्रेशन की दवाओं से उस मानसिक रोगी का वास्तविक इलाज नहीं होता।
वैसे उदासी और डिप्रेशन में अंतर होता है।
डिप्रेशन को लोगों ने एक फैशनेबल शब्द सा बना दिया है।
वास्तविक डिप्रेशन एक बेहद डरावना अनुभव है।
बचपन में हुये यौन उत्पीड़न जैसा।

मानसिक बीमारियां हमेशा रही हैं, हमेशा रहेंगी।
ऐसा नहीं कि गरीब आदमी को मानसिक रोग नहीं होते।
गरीब आदमी को भी मानसिक बीमारी होती हैं।
कई बार उन्हें, उनके परिवार को पता भी होता है, पर कभी शर्म से, कभी पैसों के अभाव में, कभी सही डॉक्टर न मिलने के कारण इलाज करवाना संभव नहीं होता।जैसा कि मैं ऊपर कह ही चुका हूं।
मानसिक रोग के केवल तीन ही कारण होते हैं।
पैसा।
प्रेम या यौन सम्बंध ।
तीसरा वंशानुगत कारण।
वंशानुगत कारण कम होता है पर ये वाकई होता है और विकट होता है।
ऊपर लिखे तीन कारणों से उच्च वर्ग की अपेक्षा निम्न वर्ग ज्यादा जूझता है और इसी वजह से निम्न वर्ग में मानसिक रोगी बहुत होते हैं।
पर उनकी जानकारी बस इसीलिये नहीं हो पाती क्योंकि वो इलाज के लिये जाते ही नहीं या किसी कारणवश पहुंच नहीं पाते।
एक चीज और है।
मानसिक रोग रातों रात नहीं होते।
मानसिक रोग कैंसर या किडनी या लीवर की बीमारी की तरह होते हैं या मोतियाबिंद की तरह।
ये धीरे धीरे होते हैं।समय के साथ ये रोग बिगड़ते चले जाते हैं।
अचानक से कोई आघात लगने पर, कोई शॉक लगने पर आदमी का हार्टफेल हो सकता है, दिमाग की नस फट के ब्रेन हैमरेज भी हो सकता है।
पर अचानक लगे शॉक से कोई अकस्मात मानसिक रोगी नहीं बनता।
किस्से कहानियों में ही ऐसा होता है कि अचानक लगे शॉक से कोई तुरंत पागल हो जाये।
वास्तव में तुरंत ऐसा नहीं होता।
मानसिक रोग धीरे धीरे बढ़ते हैं और धीरे धीरे ही ठीक होते हैं।
इसी वजह से मानसिक रोगियों का इलाज भी लंबा ही चलता है। सालों तक।
मानसिक रोग इतना जटिल विषय क्यों है ? इसका उतर इस बात में छिपा है कि एक जिंदा व्यक्ति का मस्तिष्क कभी आराम नहीं करता।
आदमी का दिमाग सोने में भी चालू रहता है, बेहोशी में भी और कोमा में भी।
आदमी का दिल भी रुक रुक के ही धड़कता है पर एक जिंदा आदमी का दिमाग कभी आराम नहीं करता। इस वजह से भी मानसिक रोगों का इलाज कठिन होता है।
अंत में दो तीन बातें कह के अपनी बात समाप्त करूंगा।
नशेबाजी के कारण हुये डिप्रेशन या किसी और मानसिक समस्या को असली मानसिक रोग नहीं माना जा सकता और इसका इलाज भी आसान है।

क्योंकि इस तरह के अवसाद का मुख्य कारण डॉक्टर को पता होता है और इलाज भी।
दूसरा उदासी डिप्रेशन नहीं होती, हालांकि डिप्रेशन में उदासी एक प्रमुख तत्व ज़रूर होता है।
तीसरा तनाव भी वास्तविक डिप्रेशन नहीं होता।
और चौथा ये कि अनिद्रा मानसिक रोगों का पहला चरण होता है।
बिना कोई दवाई खाये अगर किसी को अच्छी नींद आ रही है तो पहले तो उसे जल्द कोई मानसिक रोग होगा नहीं और अगर है भी तो जल्द ठीक हो जायेगा।
आपका – विपुल
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