Spread the love

सरकारी कर्मचारियों का नैतिक पक्ष

हर किसी का अपना तर्क होता है सरकारी नौकरियों के पक्ष विपक्ष में।

स्वरोजगार करने वालों, प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करने वाले, किसान और शिल्पकारों का अपना योगदान है।उनका सम्मान है।

यहां मैं अपने पक्ष रख रहा हूं और चाहता हूं आप विमर्श का हिस्सा बनें

आगे पढ़ें।

भारतीय आदमी आदतन वैचारिक बेईमान होता है। जिंस में है।

इसको हर काम में सरकारी मदद की ज़रूरत होती है।

गली में दो कुत्तों की लड़ाई में भी इसे सरकार कहां हैं  क्या कर रही है पूंछना होता हैं।

पर सरकार जहां मदद करती है, उसे नजरंदाज भी करना होता है।

कोरोना से शुरू करें?

मोदी सरकार ने अच्छा काम किया न कोरोना में?

वाकई अच्छा किया। मैं भी मानता हूं।

भाजपा वाले भी मानते हैं।

पर पूरा श्रेय वो मोदी और सरकार को देंगे।

सरकारी कर्मचारियों को नहीं।

मोदी या योगी खुद गए थे क्या घर घर अनाज पहुंचाने?

फंसे हुओं को निकलवाने?

गए तो सरकारी कर्मचारी ही थे न?

शिवराजपुर का sho महेश यादव बिकरू कांड में शहीद हुआ। नगर पंचायत में घर 

घर फंसे लोगों तक खाना पहुंचाता था स्वयं , पीक कोरोना में खुद जान जोखिम में डाल कर।

विकास दुबे से लड़ने आईटी सेल वाले गए थे क्या? कोई नेता मंत्री गया था?

गया तो वोही था।

मारा गया।

सरकारी कर्मचारी ही था वो।

डॉक्टर अनुज दीक्षित तब सीएचसी में था, कितनों की मदद की कोरोना काल में जब प्राइवेट डॉक्टर बगैर मोटी फीस लिए आपसे मिलना भी पसंद नहीं करते थे।

सरकारी था।

ये सिर्फ दो नाम हैं।

जब लोग घरों से निकलना पसंद नहीं करते थे। पड़ोसी को छूने से डर रहे थे, तब हर स्टेट के , केंद्र के लगभग हर विभाग के न जाने कितने सरकारी कर्मचारी लगभग  अधिकारी जान जोखिम में डाल के घूम रहे थे।

यहां तक कि वैक्सिन के गिनी पिग भी बने।

उनकी तारीफ करने से बचते हैं लोग।

2021 का कोरोना प्राणघातक था।

यूपी के मुख्यमंत्री तक आइसोलेट थे।

लाशें बिछ रही थीं,तब ऑक्सीजन सिलिंडर की व्यवस्था,और व्यवस्था कौन देख रहा था ?

तीसरे मंजिल की फ्लैट पर वर्क फ्रॉम होम करता चिंटू?

तब पंचायत चुनाव  भी हुआ था। कई लोगों को कोरोना हुआ था।

ये बात केवल कोरोना पर खत्म नहीं।

सरकार अगर रहेगी तो सरकारी ढांचा रहेगा ही।

आप अपने तिजोरी की चाबी किसी को दे सकते हैं क्या?

सरकारी ढांचा एक मशीन या यूं कहें आपके शरीर के समान है।

कुछ अंग अच्छे काम करते दिखते हैं कुछ बुरे।

लेकिन जरूरी तो मूत्राशय भी उतना ही होता है जितना आंख।

है न?

पुलिस और तहसील ऐसे ही अंग हैं।

फर्ज कीजिए। 

सड़क पर एक अनजान लाश पड़ी है।

कौन उठायेगा?

उस क्षेत्र के बीट सिपाही की जिम्मेदारी होगी।

और वो झक मार के ये करेगा।

क्यों?क्योंकि वो उसका काम है।

इस काम के पैसे लेता है वो किसी से?

रिश्वत लेगा?

कौन देगा?

लोग मुंह उठा के बक देते हैं।

लोग मुंह उठा के बोल देंगे।

सरकारी कर्मचारी काम करने की रिश्वत लेता है।

काम न करने की तनख्वाह।

कैसे चल रहा देश फिर?

रेलवे दुर्घटना हुई थी न अभी कहीं?

लाशें गिरी थीं।

कौन उठाने गया था?

पकौड़े बेचने वाले तो नहीं गए थे न?

तहसील ब्लॉक और थानों की हालत देखिए । बैठने की जगह तक नहीं मिलती है उनके कर्मचारियों को उनके ही ऑफिस में जबकि स्टाफ भी पूरा नहीं होता।चूंकि ये जनता से सीधे जुड़ी नौकरियां हैं इसलिए इनसे जनता की शिकायतें हमेशा रहती ही हैं। नोंक झोंक होती ही रहती है।

मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री खुद हर जगह नहीं पहुंच सकता जनता के लिए,उसके लिए ही सरकारी तंत्र होता है।

सरकार रहेगी तो सरकारी नौकरियां भी रहेंगी।

निजीकरण से अगर देश चलते होते तो आपके बोलने तक के पैसे लगने लगे होते अब तक। और आप शिकायत भी कहां करते?

अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद ये सच्चाई है कि सरकारी नौकरियों के बगैर देश चलते नहीं।

जब तक सरकार रहेगी।

सरकारी नौकरियां रहेंगी।

और ये तभी खत्म होंगी जब देश में अराजकता वादियों का शासन होगा।

क्योंकि राज्य गठन के आदिम सिद्धांत में ही सरकारी नौकरियां जरूरी मानी गई हैं।

विपुल मिश्रा

सर्वाधिकार सुरक्षित -Exxcricketer.com 


Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *