राम मंदिर निर्माण : क्रेडिट की लड़ाई
प्रस्तुति – राहुल दुबे
सारी लड़ाई क्रेडिट की है।कुछ का मन यह कह रहा है कि राम मंदिर के संघर्ष का सारा क्रेडिट उनके पैरों में रख दिया जाए तो वे खुश हो जायें। ऐसा तो मुमकिन नहीं है। क्योंकि पीढ़ियों ने लड़ाई लड़ी है ,490 साल के अनवरत संघर्ष का फल है ,राम मंदिर ऐसा नहीं है कि बस एक दिन कोई उठा और उसने ठाना मंदिर बनवाना है और बन गया मंदिर। इसमें उन गाँव वालों का भी योगदान है जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया जब मीर बाकी मंदिर तोड़ने आया था। उन सूर्यवंशी क्षत्रियों का भी योगदान है जिन्होंने अपना सबकुछ भूलकर ये शपथ राम के नाम की खाई कि जबतक मंदिर नहीं बनेगा तबतक पगड़ी धारण नहीं करेंगे। उन साधु संतों का भी योगदान है जिन्होंने अपने आराध्य की आराधना अनवरत की ,उस समय भी विश्वास नहीं छोड़ा जब चहुँओर अंधकार ही था। मराठों में महादजी सिंधिया का भी योगदान है जिन्होंने शाह आलम को मजबूर किया कि वे रामजन्मभूमि पर हिंदुओं को पूजा पाठ करने दे।शायद वे रहते तो हमें हमारा हक़ उस समय ही मिल गया होता।नवाबों से लड़ने वाले अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह का भी योगदान है ,जिन्होंने नवाब सआदत अली को मजबूर किया था राम जन्मभूमि पर फिर से हिंदुओ का अधिकार हो सके।
लेकिन वो समय सहिष्णु हिंदुओं के वश में नहीं था,इसलिये समय बदलता रहा और हमारी अयोध्या जिसको रवीन्द्र जैन अपने गीत के माध्यम से ये मानते रहे कि “ऐसी अयोध्या को क्या कोई जीते त्रिदेव करें जिसकी रखवारी” वो ऐसे ही बलिदान देखती रही और चुप रही। तब अयोध्या ना अपना दुःख किसी से बांट सकती थी ,ना कोई उसकी दुःख से दुखी होकर कुछ बदलने की चाहत रखता था।
मैं इतिहास का ज्ञाता नहीं हूँ ।मुझे नहीं मालूम अयोध्या जी में 1857 से 1947 तक क्या हुआ।शायद उस समय देश का मूड दासता से मुक्ति का रहा होगा इसलिए उस समय कोई भीषण संघर्ष नहीं हुआ होगा।रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए यदा कदा रामभक्त स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों से रामजन्मभूमि को हिंदुओं को देने के लिए कहते जरूर रहे होंगे, लेकिन उनकी कमजोर आवाज का सहारा कोई नहीं था।मुझे नहीं पता कि रामराज्य की परिकल्पना करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी ने रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए अंग्रेजों से क्या कहा। लेकिन जब देश आजाद हुआ तो राम जी ने खुद अपने लिए अपना संघर्ष छेड़ा।रामविलास दास वेदांती जी के गुरु जी बाबा अभिरामदास जी के तपोबल के कारण राम जी की मूर्तियां विवादित स्थल पर अवतरित हुईं। नये नये लोकतांत्रिक भारत में ,जो अभी बस कागजों पर आजाद ही हुआ था ,उसके लिए ये सब आश्चर्यजनक रहा होगा।मैं ये कह सकता हूँ कि यदि उस समय के देश के कर्ता धर्ता थोड़ी हिम्मत दिखाते तो ये संघर्ष का दौर इतना लंबा नहीं खिंचता। साधु संतों को संघर्ष के लिए संगठन बनाकर जनजागरण अभियान नहीं चलाना पड़ता।
लेकिन नियति को जो मंजूर होता है ,वही होता है।
फिर संघर्ष की नई कथा लिखी गयी जिसमें अनेक लोगों का योगदान है ।कई के नाम मैं जानता हूँ ,कई के नाम मैं अपनी अज्ञानता या यूं कहें मैं अपनी लापरवाही के कारण नहीं जानता। इसलिए एक का नाम लिखकर बाकियों का अपमान ठीक नहीं है।
लेकिन नवीन रामजनभूमि के आंदोलन में अशोक सिंहल ,साध्वी ऋतम्भरा, रामविलास दास वेदांती, प्रवीण तोगड़िया, विनय कटियार, लालकृष्ण आडवाणी, संघ, विश्व हिंदू परिषद और अनेकों रामभक्तों ने अपनी ऊर्जा के बलबूते तमाम रुकावटों के बाद भी हमें ये दिन दिखाया है।उन कारसेवकों का बलिदान जिन्होंने बिना कुछ सोचे स्वयं को राम के लिए झोंक दिया।वे तब राम के लिए जिद पर अड़े रहे जब सरकार के लोग राम मंदिर के विरोध में थे और आंदोलन को कुचलने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे और उसकी बानगी 2 नवंबर 1990 को पूरे देश ने देखी जब रामभक्तों पर एक निरंकुश शासक ने गोलियां चलवाई।आज के समय में जब एक अपराधी का एनकाउंटर करने पर भी पुलिस को तमाम सवालों का सामना करना पड़ता है लेकिन उन 50 मासूमों की जान लेने वाले लोगो पर क्या कारवाई हुई किसी को नहीं पता । और कोई उन्हें सजा दिलाने की बात भी नहीं करता। आज जब एक घटना पर लोग “हमारा इकोसिस्टम नहीं है” ऐसा रोना रोने लगते हैं, तब उस समय जब केंद्र में अपनी सरकार न होने के बाद भी अवैध ढांचे का विध्वंस करना और उसका नेतृत्व करने की क्षमता अपने आप में अद्भुत है।
राम मंदिर निर्माण के लिये भाजपा ने अपनी चार सरकारें गंवा दीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने खुले मंच से कहा कि उस अवैध ढांचे के विध्वंस का जिम्मेदार मैं हूँ और उसके लिए किसी भी सजा के लिए तैयार हूँ। ये नेतृत्व बल था और उसके बाद कानूनी लड़ाई !वहां दक्ष लोगों का अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन , रंजन गोगोई की फैसला सुनाने की प्रतिबद्धता और अंत में एक मुख्यमंत्री का प्रण कि अयोध्या को त्रेता के जैसा सजायेंगे। अयोध्या जी के लिए लड़ाई में किसी एक कालखंड को वरीयता देना, एक नेतृत्व को ही सारी प्रशंसा देना ठीक नहीं है और ना ही यह अयोध्या धाम के लिए हुए वर्षों के संघर्ष के साथ न्याय है । ये हमारी सभ्यता की जीत है कि हम अपने पहचान को वापस पा रहे हैं।ये समय इसके आंकलन का नही है कि कौन कितना बड़ा श्रेयस्कर है इस विजय के लिये, बल्कि समय इसका है कि हम ये निश्चित करें कि जो स्थान हम आजतक नहीं जीत पाएं उन पर भी हम विजय पायें।जो भी आज जीवित है वो कोई भी हो, बड़े से बड़े पद पर , या वो गरीब जिसके लिए अयोध्या जी तक पहुंचना भी एक महत्वकांक्षी प्रायोजन है ,सभी को स्वयं को भाग्यशाली मानना चाहिए कि जिस राम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए हमारे पूर्वज लड़ते रहे उसकी परिणीति हमारे समय में हो रही है।हमारे राम लल्ला जो वर्षों तक टेंट में थे, जिनके टेंट के तिरपाल को बदलने तक की अनुमति समय से नहीं मिल पाती हो,जिस प्रदेश में रामभक्त चालान कटता हो ,वहां अंततः प्रभु आ रहे हैं। और प्रभु के विराजने की खुशी के आगे सबके श्रेय लेने का दुःख, कुंठा का कोई मोल नहीं है।हमें सोचना चाहिये कि जो रामद्रोही वर्षों तक हमारा उपहास करते रहे, जो हमारे आंदोलन को घृणा की नज़रों से देखते रहे, वो किसी को बैठाकर मीडिया प्रसारण क्या ईमानदार मन से कर रहे हैं?
हमारी तो राम जी से प्रार्थना है कि राम जी सबको सद् बुद्धि दें, हम लोग और आगे बढ़ें, अपने देश का कल्याण हो, विश्व का कल्याण हो।।
सियावर रामचन्द्र की जय !!
(लेखक ने यहां अपने विशुद्ध विचार रखें है, उसमें किसी भी प्रकार की दोष त्रुटि के लिए वो आप सभी से पहले से ही क्षमाप्रार्थी है)
राहुल दुबे
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