कटपीस कल्चर के प्रभाव में
प्रस्तुति – डॉ रमाकान्त राय
अभी हाल ही में स्वातंत्र्य वीर सावरकर फिल्म का ट्रेलर जारी हुआ है।उस फिल्म में वीर सावरकर की भूमिका निभाने वाले अभिनेता रणदीप हुडा ने एक वक्तव्य से लोगों में उत्तेजना फैला दी कि यदि गाँधी जी न होते तो भारत को स्वाधीनता ३५ साल पहले ही मिल गयी होती।यह वक्तव्य इतिहास के तार्किक आधार को ही झुठलाता था इसलिए रणदीप हुडा की आलोचना हुई कि स्वाधीनता मिलने से ३५ वर्ष पूर्व महात्मा गाँधी का अविर्भाव भी भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नहीं हुआ था। भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी के योगदान को नकारने वाली नई लहर में यह वक्तव्य आ गया था, वरना इसका कोई विशेष अर्थ नहीं था।यहाँ यह समझना होगा कि भारतीय राजनीति में साबरमती के सन्त महात्मा गांधी के योगदान को नकारने के लिए ऐसे प्रयास नाकारा सिद्ध होंगे।
एक कहावत है कि किसी लकीर को छोटा करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसे मिटाया जाए अथवा उसके किसी अंश को हटा दिया जाए अपितु एक बड़ी लकीर खींचना अधिक श्रेयस्कर और रचनात्मक काम माना जाता है।प्रसिद्ध आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की स्थापना का खण्डन ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में एक बड़ी लकीर खींचकर करने का प्रयास किया।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ ग्रन्थ में भक्तिकाल की पृष्ठभूमि स्पष्ट करते हुए बताया था कि हिंदी में भक्ति काल इस्लामी शासन की क्रूर और विध्वंसकारी नीतियों के कारण आया।तब आचार्य द्विवेदी ने लिखा कि “मैं इस्लाम के महत्त्व को नहीं भूल रहा हूँ लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।”
इस प्रकार द्विवेदी जी ने इस्लाम के महत्त्व को चार आना स्वीकार किया लेकिन उसकी गणना नहीं की और भक्ति काल के उदय को दक्षिण के बहते स्वाभाविक प्रवाह से जोड़ दिया।स्वाधीनता संग्राम में गांधी जी के योगदान को इसी प्रविधि से ओझल किया जा सकता है, मूढ़तापूर्ण वक्तव्य देकर नहीं।
लेकिन यहाँ मेरे आलेख का विषय एक अन्य ही विषय है।इसी फिल्म के ट्रेलर में एक संवाद है जिसमें विनायक दामोदर सावरकर को दो उम्रकैद की सजा के बाद बेड़ियों में जकड़कर ले जाते हुए दिखाया गया है।कोई सावरकर से कहता है कि “पहली बार किसी को दो उम्रकैद की सजा दी है।”प्रत्युत्तर में सावरकर कहते हैं- “ऊपरवाले ने एक जिंदगी दी थी।जज साहब ने दो दे दी।”
सामान्यतः यह माना जाएगा कि विनायक दामोदर सावरकर के उत्तर में “ऊपरवाले” शब्द का प्रयोग ईश्वर, गॉड, भगवान् के लिए आया है।लेकिन विचारणीय है कि युवावस्था के दिनों में धार्मिक और क्रांतिकारी सावरकर ईश्वर के लिए ‘ऊपरवाला’ क्यों कहते हैं ?भारतीय परम्परा में ईश्वर को कण कण में विद्यमान बताया गया है।वह यत्र तत्र सर्वत्र है।देवों के देव महादेव कैलाश पर रहते हैं और यदा कदा आकाश मार्ग से गमन करते हैं।सृष्टि के पालक भगवान् विष्णु क्षीर सागर में रहते हैं।वहीं निर्माण कर्ता ब्रह्मा का निवास स्थान है।देवलोक अवश्य अंतरिक्ष में कहीं है किन्तु जैसा कि विदित है कि देवता जिंदगी देने वाले नहीं नहीं हैं।फिर विनायक दामोदर सावरकर ने किस ऊपर वाले की ओर संकेत किया है?
अवश्य ही यह “ऊपरवाला” कोई और है।मैं इसे अब्राहमिक संस्कृति में देखने का प्रयास करता हूँ और देखता हूँ कि इस्लाम में अल्लाह को जगतों के सिंहासन पर विराजमान कहा गया है जो अंतरिक्ष में कहीं है। अब्राहमिक संस्कृतियों यथा जुडाइज्म, क्रिश्चियनिज्म और इस्लाम में सात धरती और सात आसमानों का उल्लेख है।इसमें सबसे ऊपर वाले आसमान में ईश्वर रहता है।इस्लाम के अनुसार यह सात आसमान हैं- रफ़ीअ, कैदूम, मादून, अर्फलून, हय्युन, उरुस और उज्माअ।इनमें से सातवें आसमान पर अल्लाह रहता है अपने निराकार रूप में। यह भी कहा गया है कि यह सात आसमान अलग अलग कारणों से अलग अलग रंग के दिखाई पड़ते हैं।
चूँकि यह आस्था और विश्वास का हिस्सा है इसलिए इसलिये न तो सत्यता की जांच की गयी है और न ही इस सम्बन्ध में कोई प्रयास ही किया जाता है।
भारतीय हिंदी सिनेमा जिसे बॉलीवुड कहा जाता है पर इस्लामिज्म और क्रिश्चियनिज्म का गहरा प्रभाव है।इस प्रभाव के फलस्वरूप बहुत सी ऐसी बातें हमारे सामान्य जीवन का अंग बन गयी हैं जिन्हें हम अवधारणात्मक रूप से अंगीकृत कर चुके हैं। इसमें “ऊपरवाला” सबसे प्रचलित शब्द है।इसी प्रकार “इसे दवा की नहीं दुआ की जरुरत है” जैसा वाक्य भी पीड़ित और शोषितों के लिए बहुप्रयुक्त होने वाला वाक्य है।यहाँ संस्कृतियों और उपासना पद्धतियों का स्वरुप एकमेक हो गया है।अब्राहमिक प्रभाव से कई ऐसी धारणाओं ने अपना स्थान स्थायी कर लिया है जो सामान्यतः भारतीय उपासना पद्धति का अंग नहीं है।
लेकिन ऐतिहासिक चरित्रों पर फिल्म बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि संवाद और दृश्यों का फिल्मांकन तदनुरूप हो।विनायक दामोदर सावरकर पर फिल्म बनाने वाले लोगों को यह घालमेल करने से बचना चाहिए।इसलिए और भी कि विनायक दामोदर सावरकर हिन्दू जीवन पद्धति के शलाका पुरुष हैं,जिन्होंने बहुत साहस और त्याग किया है।जिन्होंने अपना कैरियर दाँव पर लगाकर अंग्रेजों के विरुद्ध लिखा और आन्दोलन किया है।वह एकमात्र ऐसे स्वातंत्र्य वीर हैं जिन्होंने सन १८५७ ई० की क्रान्ति को भारत का स्वाधीनता संग्राम कहा है, जिनका सनातन साधन पद्धति और हिन्दू जीवन पर गहरा विश्वास है।
रणदीप हुडा अभिनीत फीचर फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर अपने समग्र रूप में किस तरह की छवि निर्मित करेगी,यह तो फिल्म रिलीज होने के बाद ही पता चलेगा,लेकिन ट्रेलर देखकर अनुमान होता है कि यह फिल्म भी कटपीस कल्चर के प्रभाव में है।
डॉ रमाकान्त राय
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा
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