Spread the love

सिनेमा और साहित्य
आपका – विपुल
चलिये आज कुछ सीरियस बातें कर लेते हैं सिनेमा पर।
साहित्य निश्चित तौर पर समाज का दर्पण है पर सिनेमा बिलकुल भी समाज का दर्पण नहीं है।
सिनेमा हमारे मनोरंजन का साधन है। पुस्तकें मनोरंजन का साधन कभी हो भी सकती हैं, कभी नहीं भी हो सकतीं।
पर सिनेमा हर हाल में मनोरंजन का साधन है।

पुस्तकें हमारे कोर्स में शामिल होती हैं। हमें इंग्लिश हिंदी ही नहीं, गणित और भौतिक विज्ञान की पुस्तकें भी पढ़नी पढ़ती हैं। पुस्तकें जरूरी हैं।
साहित्य सिर्फ और सिर्फ कहानी नाटक उपन्यास कविता नहीं होता।
गणित की प्रमेय सुलझाती और रसायन विज्ञान के नियम बताती पुस्तक भी साहित्य ही है।

मेरी जिंदगी की पढ़ी सबसे अच्छी पुस्तक मनोरंजक भौतिकी है जो मैं आज भी सुरेंद मोहन पाठक या विमल मित्र के उपन्यास या राहत इंदौरी की गजल से ज्यादा चाव से पढूंगा।
इसे आप साहित्य की श्रेणी में नहीं रखेंगे, पर दरअसल ये भी एक साहित्य ही है।
साहित्य हमारे जीवन से जुड़ा है, जरूरी है।

सिनेमा जरूरी नहीं है। सिनेमा के लिये आपको पैसे खर्च करने पड़ते हैं। सिनेमा हाल में या टीवी पर केबल के पैसे, नेटफ्लिक्स के पैसे आप देते हैं।
आप प्लान बना के देखते हैं।
किताबें आपके घर पर पड़ी रहती हैं जो आपके बाबा परबाबा ताऊ चाचा खरीद के छोड़ गये।
सुलभ हैं। कभी भी पढ़ सकते हैं।

साहित्य और सिनेमा में एक बुनियादी फर्क ये भी होता है कि साहित्य स्वांतः सुखाय सिर्फ अपने लिये भी लिखा जाता है।
सिनेमा केवल अपने लिये नहीं बनाया जाता।
ये हमेशा ही दूसरों के देखने के लिये ही बनाया जाता है।

कहने को कुछ भी कहो, हम सिनेमा मात्र मनोरंजन के लिये देखते हैं। परिवार के साथ छुट्टी पर मूवी हाल जाना मूड अच्छा करने के लिये होता है।
पुरानी भारतीय फिल्में दर्शकों के मनोरंजन को ध्यान में रख कर बनती थीं।
फिर अचानक से कला फिल्मों का युग आता है।
कला फिल्मों में क्या था?

कला फिल्मों में भारतीय जीवन का नकारात्मक प्रदर्शन था। गरीबी, चरित्रहीनता, गंदगी, भूख।
विदेशी तो चाहते ही थे कि भारत का नकारात्मक पक्ष सामने आये, अवॉर्ड मिलने लगे।
हालांकि ये कला फिल्में थियेटर में देखने कोई नहीं जाता था।
पर पुरस्कार और सम्मान तो मिलते थे।

हालांकि इन कला फिल्मों के मुख्य अभिनेता नसीरुद्दीन शाह त्रिदेव जैसी मसाला फिल्मों में आए, स्मिता पाटिल को बरसात में भीगने वाले गाने करने ही पड़े।
क्योंकि कला फ़िल्में पैसे नहीं देती थीं।
उसके बाद कुछ समय माहौल ठीक रहा फिर आते हैं अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकार।

अनुराग कश्यप या उनके पदचिन्हों पर चलने वाले फिल्ममेकर्स की फिल्मी कहानियां भूख , गरीबी बेरोजगारी के अलावा खुलेआम गालियां और खुलेआम ऐसे यौन संबंध भी दिखाने लगीं जो पहले नहीं दिखते थे।
समाज में गंदगी थी?
हां! हमेशा से थी, पर इतनी ज्यादा नहीं जितनी इनकी फिल्मों में दिखने लगी।
एक निश्चित ट्रेंड, जैसे हर पुलिस वाले की पारिवारिक जिंदगी तहस नहस है।
हर औरत अवैध संबंध बनाए है।
हर बड़े घर का लड़का ड्रग एडिक्ट है।
यूपी बिहार का हर आदमी हर बात में मां बहन की गाली देता है।
आपको ऐसा ही लगेगा अनुराग कश्यप और उनके स्कूल के फिल्म मेकर्स की फिल्में देख कर।

कला का मतलब सिर्फ नकारात्मकता नहीं होती।
कालिदास और शेक्सपियर ने सिर्फ शोकगीत नहीं लिखे।
वैसे भी भारतीय जनमानस की चेतना कभी नकारात्मक नहीं रही।
चाहे कालिदास जैसे राज्यश्रय वाले कवि रहे हों या सूर तुलसी कबीर जैसे जनकवि।
आपको कहीं नकारात्मकता नहीं दिखेगी।
इनका स्तर कम तो नहीं है न?

मैं 500 रुपये डाल के रोना धोना तो देखने नहीं जाऊंगा।
राज कपूर की श्री 420 मुझे आज भी पसंद है। ऋषिकेश मुखर्जी की आनंद और उत्पल दत्त अमोल पालेकर की गोलमाल।
ऐसी फिल्में बनाना सबके बस की बात नहीं होती।
असल सिनेमा यही है।
मेरी नजरों में।
और अंत में।
फिल्म मेकिंग कोई कला नहीं है।

वो कोई भी चीज कला नहीं हो सकती जिसमें आपको दूसरों का सहारा लेना पड़े।
नाच, गाना, पेंटिंग, कोई वाद्य का वादन या लेखन।
कला ये हैं जिसमें व्यक्ति को दूसरे की मदद की जरूरत कभी नहीं पड़ती है।
फिल्म मेकिंग एक हुनर कहा जा सकता है।
इसमें आप दूसरों के बगैर कुछ नहीं कर सकते।
बस इतना ही।

आपका – विपुल
सर्वाधिकार सुरक्षित – Exxcricketer.com

exxcricketer@gmail.com


Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *