
मूवी रिव्यू – छावा
छावा फिल्म देखी!आज के बॉलीवुड से अपना मन जुड़ता नहीं है।पर हिन्दुत्व के अग्रणी संभाजी के जीवन पर बनी फिल्म तो देखनी ही थी।संभाजी का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि ढाई घंटे की फिल्म मे उसको समावेशित करना लगभग असंभव है।फिर भी निर्देशक ने एक कोशिश की है और कोशिश पूर्णतया सफल नहीं तो असफल भी नहीं है।अगर सिर्फ तकनीकी रूप से देखा जाए तो फिल्म छायांकन और लड़ाई के दृश्य में कहीं भी कमतर नहीं है।बल्कि अंतिम समय मे जब संगमेश्वर में जब संभाजी को घेर लिया जाता है तो उस समय के दिखाये गये एक्शन दृश्य तो एकबारगी हॉलीवुड को टक्कर देते दिखते हैं।खासतौर पर ढाल वाला दृश्य। अब बात करते हैं कहानी की। चूंकि ये जीवनी है तो उपन्यास से इतर कुछ करने का अधिक नहीं है निर्देशक के लिए।कहानी को आगे बढ़ाने के लिए एक्शन का सहारा अधिक लिया गया है जो स्वाभाविक है।

पर ऐसे व्यक्तित्व की सोच को और बेहतर दिखाया जा सकता था।उनकी रणनीतिक और राजनीतिक समझ को बहुत हल्के मे लिया गया है।केवल एक्शन के सहारे उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। क्लाइमैक्स मे औरंगजेब द्वारा संभाजी को यातना देने वाले दृश्य दर्शकों को विचलित करते हैं और बेहतरीन तरह से प्रदर्शित किए गए हैं।
अब बात करते हैं अभिनय की! विकी कौशल को जितना कहानी और निर्देशक ने करने का मौका दिया है उन्होंने उससे अधिक ही कर दिया है।विकी कौशल आज के समय के अच्छे कलाकारों मे गिने जा सकते हैं और यह फिल्म इस तथ्य को और स्थापित ही करेगी।रश्मिका मंदाना अपनी जगह पर सिर्फ संवाद बोलने के लिए रखी गयी हैं।उनका और संभाजी का ट्रैक भी आवश्यकता से अधिक रखा गया है जिससे एक प्रेम कहानी जैसा प्रतीत होता है जो कि इस फिल्म का लक्ष्य नहीं है।

विनीत सिंह ने उम्दा काम किया है पर उनके साथ भी वही समस्या है जो बाकी किरदारों के साथ है।किसीके लिए ज्यादा कुछ करने को है नहीं पटकथा में।चूंकि उनका किरदार कवि का है तो उनको औरों से अधिक अवसर मिला है बोलने का। उन्होंने यादगार अभिनय किया है।आशुतोष राणा जैसे कलाकार को व्यर्थ किया गया है फिर भी वो ऐसे कलाकार हैं जो अपनी छाप छोड़ ही देते हैं।और अंतिम मे अक्षय खन्ना!वो कभी भी अपने करियर मे ओवर द टॉप करते नहीं दिखे,और यहाँ तो उन्होंने कमाल ही किया है! औरंगजेब जैसे क्रूर और निर्दयी व्यक्तित्व को उन्होंने जिस तरह बहुत कम बोलकर प्रदर्शित किया है वो शानदार है। ऐसे रोल अग्नि परीक्षा होते हैं किन्तु वो इसमे सफल हुये हैं।

शुरुआत में ही फिल्म को धर्मनिरपेक्षता का लबादा पहनाया जाता है जब ये कहा जाता है कि हमारी लड़ाई किसी धर्म के विरुद्ध नहीं है और अंतिम दृश्य मे औरंगजेब कहता है हमारा धर्म मान लो।
सर्वविदित है कि ये लड़ाई धर्म की ही थी।
निर्देशक की अपनी व्यवस्था रही होगी पर ऐसा करने से फिल्म की और पात्र की प्रमाणिकता ही कम ही होती है।
हॉलीवुड की तरह इस फिल्म को दो भागों में बनाया जा सकता था!
पटकथा की कमी के कारण फिल्म बेहतरीन नहीं कही जा सकती है!
पर अपने इतिहास के ऐसे पात्रों को अगली पीढ़ी को दिखाये जाने के लिए ऐसी फ़िल्में बनना और उन्हें देखना आवश्यक है!
प्रस्तुति – शौखंद
एक्स हैंडल – @shokhanda84
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