रचनाकार – विज्ञान प्रकाश
जो रुद्र समान तेज धारी,
जो भू और नभ का भवहारी,
कहता गाथाएं वो अबूझ,
और सुनती सीता सुकुमारी।
अरे भाग्य कैसा दुष्कर,
जो गोदावरी तेरी तट पर,
जो वसंत सब था छाया,
वो होने अंत को था आया!
उतरी नभ से वो निशाचरी,
दिख पड़ा सामने वो नरहरि,
खोकर पति को जो थी विपन्न,
देखा नर सब गुणों से सम्पन्न।
आंखें ज्यों शतदल थीं उसकी,
चलता ज्यों गज कोई जैसे,
जिसका स्वरुप था काम स्वयं,
कोई स्वर्ग अधिपति हो जैसे!
यों बंधे केश, ये नेत्रबिम्ब,
जो किया हृदय का भेदन था,
क्या दोष सूर्पनखा के हृदय का,
मौन माया में प्रणय निवेदन था!
एक ओर जो कुत्सित औ’ कुरूप,
एक ओर मनोहर सब स्वरूप,
एक ओर था केवल अंधकार,
एक ओर ना था कोई विकार!
फिर मोहवश, पड़ पाश में,
आसक्त होकर काम से,
जो था विधि लिखित किया,
अहो विधि ने क्या क्रम लिया।
“तपस्वी को क्या भार्या से प्रसंग,
साधु और शर कैसा ये व्यंग,
दानवों भूमि करते विचरण,
रखो हे युवक अपना कारण।”
“दशरथ का पुत्र, मैं राम हुआ,
लक्ष्मण भ्राता, सीता भार्या,
पितृ वचन निभाने की केवल,
मंशा से हूं मैं वन आया।”
अब पुनः राम ने प्रश्न किया,
“किसकी पुत्री किसकी जाया,
यों प्रश्न पूछने का क्या ध्येय,
होती प्रतीत राक्षसी या दैत्य!”
“हूं राम सत्य मैं बस कहती,
राक्षसी मैं वन विचरण करती,
कर माया से स्वरुप वर्तित,
करती हूं वन को मैं भयभीत।
“रावण की भगिनी मैं राम,
कुम्भ, विभीषण दो भ्राता,
करते कम्पित जो विश्व सकल,
खर दूषण से मेरा नाता।”
“इन सब से मैं वीरोचित,
तुम्हें पाने पर है लगा चित्त,
नहीं नर धरा पर कोई मेरे तुल्य,
एक होते गोचर तुम्हीं मूल्य।”
“कर दो सीता का परित्याग,
हो जाओ मेरे अर्ध भाग,
नहीं सीता राम तुम्हारे योग्य,
विधि में लिख दूँ सम्पूर्ण भोग्य।”
“विकृत सीता कुत्सित लक्ष्मण,
कहो कर लूं मैं इनका भक्षण,
और राम मैं तुमको मुक्त करूँ,
जीवन सौंदर्य से पूर्ण करूँ।”
“दंडक के राजा तुम होगे,
सब भोग विश्व के भोगोगे!”
सुन कर के राम यूं मुस्काए,
मायापति शब्द जाल लाए।
… क्रमशः
रचनाकार -विज्ञान प्रकाश
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