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लेखक -विपुल

विपुल

छिनरई एक कला है, एक आर्ट है ।ये आजकल के स्मार्टफोन जीवी युवा नहीं समझते ।वो फ्लर्टिंग और छिंनरई को एक समझते हैं ।
नहीं भाई, छिनरई और फ्लर्टिंग में वही फर्क है जो सिडनी के मैदान में होने वाले क्रिकेट मैच और सेठ रामसहाय इंटर कॉलेज के मैदान में होने वाले गुल्ली डंडा के मैच में है।


क्रिकेटर उतने टफ नहीं होते जितने गुल्ली डंडा खिलाड़ी होते हैं । क्रिकेटर को मैच फी मिलती है और लाइमलाइट भी , गुल्लीडंडा खिलाड़ी को मां बाप की लानतें मिलती हैं, लोगों की गालियां ।और उनके मैच पर पैसा लगाने वालों हारने के बाद गाली और लातें।मतलब गुल्ली डंडा खिलाड़ी की लाइफ ज़्यादा टफ है।
इसी तरह फ्लर्टिंग हाई सोसायटी में होती है ,जहां को एजुकेशन होती है, लड़की लड़के के मिलने पर पाबन्दी नहीं होती।लड़कियां भी लड़को के साथ एंजॉय करती
हैं।उसके बनिस्बत छिनरे लौंडे अक्सर बाल विद्या मंदिर के बाद बॉयज ओनली रस्तोगी इंटर कॉलेज टाइप स्कूल के पढ़े होते हैं।
ऐसे अखण्ड सिंगल लौंडे किसी खूबसूरत लड़की को देखकर अकेले में तो आहें भरते हैं , पर सामने बात करने पर हकलाने लगते हैं, शर्माने लगते हैं।इन्हीं लड़कों में से जो अपनी शर्म को तिलांजलि देकर बला के बेशर्म होकर लड़कियों से किसी भी बहाने बात करने की हिम्मत करते हैं, वो ही छिनरे कहलाते हैं।


इन छिनरे लड़कों का एकमात्र उद्देश्य लडक़ी को किसी भी तरह अपनी ओर आकर्षित करना होता है।इसके लिये वो सारी विधाएं अपनाते हैं।अलावा इसके अच्छा छिनरा बनने के लिये बेशर्मी का पोस्ट ग्रेज्युएशन कोर्स करना भी ज़रूरी है।बगैर बेशर्म हुए कोई अच्छा छिनरा नहीं बन सकता ।
ऐसे छिनरे लौंडे कभी भी एक अदद गर्लफ्रैंड नहीं रख पाते।इनकी हरकतों की खबर इनके बापू के तथाकथित दोस्त इनके घर पहुंचा देते हैं और फिर बाप अपने पुराने जूतों से इनको पीटने के बाद बगल वाले गांव की एक कन्या से इनका विवाह करा देता है।


फ्लर्टिंग और छिनरई में मूलभूत अंतर ये है कि शादी के बाद फ्लर्टिंग तो आसानी से कर सकते हैं पर शादी के बाद छिनरई करना मुश्किल हो जाता है ।क्योंकि बीवी के सामने गांव वालों से पिटना थोड़ा ज़्यादा ही हो जाता
है

लेखक -विपुल

विपुल

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